1222 1222 1222 1222
मुझे लूटो कि कांधों में अभी जुन्नार बाक़ी है
मेरे सर पे अभी पुरखों की ये दस्तार बाक़ी है
लड़ाई के सभी जज़्बे तिरोहित हो गये यारों
अना से मेल खाता सा कोई हथियार बाक़ी है
इशारों ने इशारों की बहुत बातें सुनी, लेकिन
अभी गुफ़्तार में शामिल बहुत इक़रार बाक़ी है
दरारें जिस तरह खाई बनीं इस से तो लगता है
अभी भी बीच में अपने कोई दीवार बाक़ी है
गदा बन कर तेरे दर पे बहुत आया मेरे…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 25, 2015 at 8:30am — 39 Comments
2122 1212 22
ज़िन्दगी दी ख़ुदा ने प्यारी है
चाहतें पर बहुत उधारी है
इस तरफ़ हम खड़े उधर अरमाँ
बेबसी बस लगी हमारी है
ख़्वाब तो रोज़ ही बुनें, लेकिन
हर हक़ीकत लिये कटारी है
ख़र्च का क़द बढ़ा है रोज़ मगर
रिज़्क की शक़्ल माहवारी है
रिश्ते बदशक़्ल हो गये अपने
पेट की आग सब से भारी है
फुनगियों में लटक रहे अरमाँ
कोई सीढ़ी नहीं , न आरी है
तिश्नगी अश्क़ भी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 19, 2015 at 2:00pm — 29 Comments
212 1222 212 1222
क्या हुआ यहाँ पर कल , क्यूँ उदास मौसम है
तितलियाँ परीशाँ हैं , क्यूँ गुलों में भी ग़म है
कितनी प्यारी लगतीं हैं , ये गुलाब की कलियाँ
और बर्गे गुल में वो , सो रहा जो शबनम है
अपनी क़िस्मतों मे तो , सिर्फ ये सराब आये
क़िस्मतों में कुछ के ही, सिर्फ़ आबे जम जम है
जगमगाती खुशियों की , नीव कह रही है ये
कुछ घरों में तारीक़ी , कुछ घरों में मातम है
आइने के गावों में…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 17, 2015 at 10:42am — 39 Comments
१२२२ १२२२ १२२
शिकायत हो न जाये आसमाँ से
अँधेरा अब उठा ले इस जहाँ से
अगर चुप आग है, तो कह धुआँ तू
शनासाई ये कैसी इस मकां से
तेरे कूचे के पत्थर से हसद है
शिकायत क्यूँ रहे तब कहकशाँ से
सुकूने ज़िन्दगी अब चाहता हूँ
बहुत उकता गया हूँ इम्तिहाँ से
कभी थे फूल से रिश्ते मगर अब
तगाफ़ुल से हुये हैं वे गिराँ से
परिंदों के परों ने की बग़ावत
सवाल अब पूछ्ना…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 15, 2015 at 10:00am — 25 Comments
ऐ ज़िन्दगी !
सांसे चल रहीं है मेरी , इसलिये
मरा हुआ तो नहीं कह सकता खुद को
जी ही रहा होऊँगा ज़रूर, किसी तरह , ये मैं जानता हूँ
पर एक सवाल पूछूँगा ज़रूर
क्या सच में तू मेरे अंदर कहीं जी रही है ?
जैसे ज़िन्दगी जिया करती है
इस तरह कि , मै भी कह सकूँ जीना जिसे
उत्साहों से भरी
उत्सवों से भरी
उमंगों से सराबोर सोच के साथ , निर्बन्ध
चमक दार आईने की तरह साफ मन
प्रतिबिम्बित हो सके जिसमें शक्ल आपकी , खुद की भी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 12, 2015 at 7:40am — 26 Comments
मिटा दूँ या मिट जाऊँ
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कब से भटक रहा हूँ
कभी पानी हुये
तो कभी खुद को नमक किये
कोई तो मिले घुलनशील
या घोलक
घोल लूँ या घुल जाऊँ ,
समेट लूँ
अपने अस्तित्व में या
एक सार हो जाऊँ , किसी के अस्तित्व संग
विलीन कर दूँ ,
खुद को उसमें
या कर लूँ ,
उसको खुद में
भूल कर अपने होने का अहम
और भुला पाऊँ किसी को
उसके होने को
ख़त्म हो जाये दोनों का ठोस…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 10, 2015 at 10:44am — 23 Comments
ओ भाई ,
नहीं , आपसे नहीं , होली दिवाली वालों से नहीं
किसी भी कौम के आस्तिकों नहीं
मै उनसे मुखातिब हूँ
अंध श्रद्धा , अंध विश्वास का ढोल पीटने वाले भाइयों से
हाँ , आपसे ही कह रहा हूँ
कितनी बार देखे हैं सर्टिफिकेट, डाक्टरी
इलाज कराने से पहले
जांचे हैं कभी ?
भेजे यूनिवर्सिटी तस्दीक करने के लिये सही है या गलत ,
फर्जी तो नहीं है सर्टिफिकेट देखे कभी , अपनीं आँखों से
कर लिये न.... विश्वास , वही.....अंध…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 3, 2015 at 8:20am — 20 Comments
छन्द – छन्न पकैया
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छन्न पकैया छन्न पकैया , होली फिर से आई
बूढ़े बाबा की भी देखो , जागी है तरुणाई
छन्न पकैया छन्न पकैया , रंग प्यार का लेके
लूले लंगड़े भी दौड़े जो , चलते हैं ले दे के
छन्न पकैया छन्न पकैया, होली बड़ी निराली
कौवा रंग लगा के पूछे , कैसी लगती लाली
छन्न पकैया छन्न पकैया , आ जा भंग चढ़ायें
फिर बैठे बैठे घर में ही, आसमान तक जायें
छन्न पकैया छन्न पकैया , सूना…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 2, 2015 at 10:30am — 28 Comments
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