पानी-पानी ...
ख़ून
ख़ून से ही
कतराता है
मगर
पानी से मिल जाता है
इसीलिये
रिश्ता
ख़ून का
हो जाता है
पानी-पानी
ख़ून के सामने
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on March 29, 2018 at 5:33pm — 12 Comments
निर्मोही रिश्ते ...
भावों की ज़मीन को
करते हैं बंजर
बंजारे से
ये
आजकल के
निर्मोही रिश्ते
जीवन को
मृत्यु का
कफ़न पहनाते
ये
आजकल के
निर्मोही रिश्ते
अपनी ही कोख़ से
अनजान बनते
ये
आजकल के
निर्मोही रिश्ते
कितना अजीब लगता है
जब
मृत रिश्तों को
कांधा देते
ले जाते हैं
दुनियावी सड़क से
मरघट तक
ये मृत केंचुली में
स्वांग रचाते
ज़िंदा…
Added by Sushil Sarna on March 28, 2018 at 8:57pm — 10 Comments
बूढ़ी माँ ...
अपनी आँखों से
गिरते खारे जल को
अपनी फटी पुरानी साड़ी के
पल्लू से
बार बार पौंछती
फिर पढ़ती
गोद में रखी
रामायण को
बूढ़ी माँ
व्यथित नहीं थी वो
राम के बनवास जाने से
व्यथित थी वो
अपने बिछुड़े बेटे के ग़म से
जिसका ख़त आये
ज़माना बीत गया
चूल्हा रोज जलता
उसके नाम की
रोटी भी रोज बनती
रोज उसे खिलाने की प्रतीक्षा में
रोटी हाथ में लिए लिए
सो जाती
बूढ़ी…
Added by Sushil Sarna on March 26, 2018 at 4:10pm — 12 Comments
अजर-अमर कविता ....
मैं
कविता हूँ
सृष्टि की साथ ही
मेरा भी उद्भव हो गया
मैं अजर हूँ
अमर हूँ
क्योँकि मैं
कविता हूँ
मेरे अथाह सागर में
न जाने
कितनी आकांक्षाओं और भावों ने
पनाह ली है
कभी प्रीत तो कभी प्रतिकार
कभी शृंगार तो कभी अंगार
कभी मिलन तो कभी विरह
न जाने कितनी ही
पल-पल हृदय में उपजती
अनुभूतियों से
मेरी देह को सजाया गया
फिर में किसी किताब में
मुझे बिठाया गया…
Added by Sushil Sarna on March 22, 2018 at 4:43pm — 4 Comments
कविता ....
कविता !
तुम न होती
तो प्रेम कभी
प्रस्फुटित ही न होता
शब्द गूंगे हो गए होते
भाव
शून्य हो
व्योम में खो गए होते
तुम ही बताओ
हृदय व्यथा के बंधन
कौन खोलता
दृग की भाषा को
कौन स्वर देता
लोचन
शृंगारहीन रह गए होते
आधरतृषा
अनुत्तरित रह गयी होती
एकाकी पलों में
अभिलाषाओं की गागर
रिक्त ही रह जाती
प्रेम सुधा
एक सुधि बन जाती
हर श्वास
एक सदी सी बन…
Added by Sushil Sarna on March 21, 2018 at 7:14pm — 12 Comments
रब से ....
वो लम्हा
कितना हसीं था
जब तुमने
हाथ उठा कर
मुझे
रब से माँगा था
मेरा
हर ख़्वाब
महक गया था
जब मैंने
अपनी आरज़ू को
तुम्हारी दुआओं में
महफ़ूज़ देखा था
मेरी बयाज़ें
जिनमें
हर लफ़्ज़
मेरी
तन्हाईयों से
सरगोशियों की दास्तान था
उन्हीं सरगोशियों की आग़ोश में
बेसुध सोया
मेरी उल्फ़त का
इक
अनदेखा अरमान था
सच
उस लम्हा
तुम मुझे…
Added by Sushil Sarna on March 20, 2018 at 7:00pm — 7 Comments
स्वप्निल यथार्थ....
जब प्रतीक्षा की राहों में
सांझ उतरे
पलकों के गाँव में
कोई स्वप्न
दस्तक दे
कोई अजनबी गंध
हृदय कंदरा को
सुवासित कर जाए
कोई अंतस में
मेघ सा बरस जाए
उस वक़्त
ऐ सांझ
तुम ठहर जाना
मेरी प्रतीक्षा चुनर के
अवगुंठन के
हर भ्रम को
हर जाना
मेरे स्वप्न को
यथार्थ कर जाना
मेरे स्वप्निल यथार्थ को
अमर कर जाना
सुशील सरना
मौलिक एवं…
Added by Sushil Sarna on March 14, 2018 at 7:45pm — 13 Comments
माँ शब्द पर २ क्षणिकाएं :
1.
मैं
जमीं थी
आसमाँ हो गयी
एक पल में
एक
जहाँ हो गयी
अंकुरित हुआ
एक शब्द
और मैं
माँ हो गयी
...........................
२.
ज़िंदा रहते हैं
सदियों
फिर भी
लम्हे
बेज़ुबाँ होते हैं
छोड़ देती हैं
साथ
साँसें
जब ज़िस्म
फ़ना होते हैं
ज़िंदगी
को जीत लेते हैं
मौत से
जो शब्द
वो
माँ होते…
ContinueAdded by Sushil Sarna on March 11, 2018 at 9:30pm — 17 Comments
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