ग़ज़ल (कैसी ये मज़बूरी है)
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गदहे को भी बाप बनाऊँ कैसी ये मज़बूरी है,
कुत्ते सा बन पूँछ हिलाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।
एक गाम जो रखें न सीधा चलना मुझे सिखायें वे,
उनकी सुन सुन कदम बढ़ाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।
झूठ कपट की नई बस्तियाँ चमक दमक से भरी हुईं,
उन बस्ती में घर को बसाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।
सबसे पहले ऑफिस आऊँ और अंत में घर जाऊँ,
मगर बॉस को रिझा न पाऊँ कैसी ये मज़बूरी है।
ऊँचे घर…
ContinueAdded by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on April 22, 2018 at 3:30pm — 13 Comments
ग़ज़ल(याद आती हैं जब)
212 212 212 212
याद आतीं हैं जब आपकी शोखियाँ,
और भी तब हसीं होतीं तन्हाइयाँ।
आपसे बढ़ गईं इतनी नज़दीकियाँ,
दिल के लगने लगीं पास अब दूरियाँ।
डालते गर न दरिया में कर नेकियाँ,
हारते हम न यूँ आपसे बाज़ियाँ।
गर न हासिल वफ़ा का सिला कुछ हुआ,
उनकी शायद रही कुछ हों मज़बूरियाँ।
मिलता हमको चराग-ए-मुहब्बत अगर,
राह में स्याह आतीं न दुश्वारियाँ।
हुस्नवालों से दामन बचाना ए…
ContinueAdded by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on April 3, 2018 at 8:30am — 9 Comments
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