नमक सी जलन .....
मत समेटो
हृदय में
शूल सी स्मृतियों को
ये
जब तक रहेंगी
अपने लावे से
विगत पलों को
सुलगाती रहेंगी
इसलिए
रोको मत
बह जाने दो
इन
नमक सी जलन देती
स्मृतियों की खारी ढेरियों को
आंसूओं के
प्रपात में
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on May 25, 2018 at 8:37pm — 7 Comments
क्षणिकाएं :
१.
तूफ़ान का अट्टहास
विनाश का आभास
काँपती रही
लौ दिए की
झील की लहरों पर
देर तक
आंधी के साथ हुए
जीवन मृत्यु के संघर्ष को
याद करके
२.
श्वास
नितांत अकेली
देह
चिता की सहेली
जीवन
अनबुझ पहेली
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on May 23, 2018 at 6:37pm — 9 Comments
Added by Sushil Sarna on May 21, 2018 at 5:45pm — 1 Comment
Added by Sushil Sarna on May 17, 2018 at 1:01pm — No Comments
हरजाई ....
ये
वो गालियां हैं
जहां
अंधेरों में
सह्र होती है
उजाले उदास होते हैं
पलकों में
खारे मोती
होते हैं
बे-लिबास जिस्म,
लिपे -पुते चेहरे,
शायद
बाजार में
बिकने की
ये पहली जरूरत है
इक रोटी के लिए
सलवटों से खिलवाड़
रौंदे गए जिस्म की
बिलखती दास्ताँ हैं
भोर
एक कह्र ले कर आती है
पेट की लड़ाई
शुरू हो जाती है
दिन ढलने के साथ -साथ…
Added by Sushil Sarna on May 16, 2018 at 11:30am — 2 Comments
नहीं जानती ...(350 वीं कृति )
नहीं जानती
तुम किस धागे से
रिस्ते हुए ज़ख्मों पर
ख़्वाबों का
पैबंद लगाओगे
नहीं जानती
तुम किस चाशनी में डुबोकर
ज़ख़्मी लम्हों को
मेरी आँखों की हथेली पर
सजाओगे
नहीं जानती
तार तार हुए
ख़्वाबों के लिबास
कैसे बेशर्मी को
नज़रअंदाज़ कर पाएंगे
मगर
जानती हूँ
तुम फिर से
मेरे
संग-रेज़ों में तकसीम ख़्वाबों को
अपने शीरीं…
Added by Sushil Sarna on May 14, 2018 at 5:30pm — 4 Comments
यौवन रुत ...
चक्षु आवरण पर
प्रत्यूष का सुवासित स्पर्श
यौवन रुत की प्रथम अंगड़ाई का
प्रतीक था
आँखों की स्मृति वीचियों पर
अखंडित लालसाओं की तैरती नावें
बहुबंध में सिमटी
अमर्यादित अभिलाषाओं की
प्रतीक थी
मौन अनुबंधों के अंतर्नाद
निष्पंद देह में
उन्माद क्षणों के चरम अनुभूति के
प्रतीक थे
मयंक मुख पे
केश मेघों की अठखेलियाँ
कामनाओं की अनंत तृषा की
प्रतीक…
Added by Sushil Sarna on May 14, 2018 at 4:59pm — 10 Comments
डूब गए ...
तिमिर
गहराने लगा
एक ख़ामोशी
सांसें लेने लगी
तेरे अंदर भी
मेरे अंदर भी
तैर रहे थे
निष्पंद से
कुछ स्पर्श
तेरे अंदर भी
मेरे अंदर भी
सुलग रहे थे
कुछ अलाव
चाहतों की
अदृश्य मुंडेरों पर
तेरे अंदर भी
मेरे अंदर भी
डूब गए
कई जज़ीरे
ख़्वाबों के
खामोश से तूफ़ान में
तेरे अंदर भी
मेरे अंदर भी
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on May 9, 2018 at 3:21pm — 2 Comments
संग दीप के ...
जलने दो
कुछ देर तो
जलने दो मुझे
मैं साक्षी हूँ
तम में विलीन होती
सिसकियों की
जो उभरी थी
अपने परायों के अंतर से
किसी की अंतिम
हिचकी पर
मैं साक्षी हूँ
उन मौन पलों की
जब एक तन ने
दुसरे तन को
छलनी किया था
मैं
बहुत जली थी उस रात
जब छलनी तन
मेरी तरह एकांत में
देर तक
जलता रहा
मैं साक्षी हूँ
उस व्यथा की
जो…
Added by Sushil Sarna on May 9, 2018 at 2:30pm — 4 Comments
क्षणिकाएं : ....
१,
मौत
देती है
ज़िंदगी
मौत को
२.
शूल के
प्रतिबन्ध से
पुष्प
वंचित रहा
स्पर्श से
३.
मयंक
आधी खाई रोटी से
लुभा रहा था
अन्धकार को
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on May 8, 2018 at 12:27pm — 2 Comments
सुलगन :
तुम
अपना तमाम धुआँ
मुझे सौंप
चले गए
मुझे अकेला छोड़
मेरी देह
तुम्हारे धुएँ की गर्मी से
देर तक
ऐसे सुलगती रही
जैसे
गरम सिगरेट की
झड़ी हुई राख से
सुलगती है
कोई
ऐश -ट्रे
देर तक
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on May 7, 2018 at 4:21pm — 8 Comments
Added by Sushil Sarna on May 5, 2018 at 4:39pm — 5 Comments
मजदूर ...
अनमोल है वो
जिसे दुनिया
मजदूर कहती है
इसी के बल से
धरातल पर
ऊंचाई रहती है
कहने को
मेरुदंड है वो
धरा के विकास का
आसमानों को छूती
अट्टालिकाएं बनाने वाला
जो
तिनकों की झोपड़ी में रहता है
वो
सृजनकर्ता
मजदूर कहलाता है
हर आज के बाद
जो
कल की चिंता में डूबा रहता है
कल का चूल्हा
जिसकी आँखों में
सदा धधकता रहता है
कम होती…
Added by Sushil Sarna on May 4, 2018 at 3:49pm — 6 Comments
कल, आज और कल ....
वर्तमान का अंश था
जो बीत गया है कल
अंश होगा वर्तमान का
आने वाला कल
वर्तमान के कर्म ही
बन जाते हैं दंश
वर्तमान से निर्मित होते
सृजन और विध्वंस
वर्तमान की कोख़ में
सुवासित
हर पल के वंश
वर्तमान से युग बनते
युग में कृष्ण और कंस
कागा धुन निष्फल होती
मोती चुगता हंस
चक्र सुदर्शन कर्म का
करे निर्धारित फल
कर्म बनाएं वर्तमान को
कल, आज और कल
सुशील सरना
मौलिक एवं…
Added by Sushil Sarna on May 2, 2018 at 4:21pm — 8 Comments
नश्वरता ....
तुम
कहाँ पहचान पाए
उस बुनकर की
आदि और अंत की
अनंत बुनती को
तुम
बुनकर बन
असफल प्रयास करते रहे
विधि के बनाये
आदि और अंत के
नग्न शरीर की
कृति पर
सच-झूठ ,अच्छा-बुरा ,
तेरा-मेरा ,पाप-पुण्य की सजावट से
दुनियावी वस्त्रों को
अलंकृत करने का
मैं
धागा था
तुम्हारे दर्द का
तुम
बुनकर हो कर भी
मुझे न पहचान पाए
जानते हो
उसकी
और…
Added by Sushil Sarna on May 2, 2018 at 3:32pm — 12 Comments
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