2122 112 2 1122 22
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खार हूँ एक ये सोचा है सभी ने मुझको
फूल के साथ जो देखा है सभी ने मुझको
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बंद सदियों से पड़ा था मैं किसी कोने में
खत तेरा जान के खोला है सभी ने मुझको
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भोर सा रास तुझे आज मगर आया क्यूँ
तम भरी रात जो बोला है सभी ने मुझको
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दाद वैसे तो मिली बात बुरी भी कह दी
बस तेरी बात पे कोसा है सभी ने मुझको
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रूह की बात किसे यार लगी सौदों …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 28, 2014 at 10:30am — 25 Comments
बाद इसके भी बहस कुछ और चलनी चाहिए
सूरतों के साथ सीरत भी बदलनी चाहिए
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चल पड़े माना सफर में बात इससे कब बनी
लौटने को घर हमेशा साँझ ढलनी चाहिए
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आ ही जायेगा भगीरथ फिर यहाँ बदलाव को
आस की गंगा तुम्हीं से फिर निकलनी चाहिए
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है जरूरी देश को विश्वास की संजीवनी
मन हिमालय में सभी के वो भी फलनी चाहिए
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ब्याह की बातें कहो या फिर कहो तुम देश की
हाथ से जादा …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 22, 2014 at 10:30am — 19 Comments
मौत बेटियों को बस, दाइयाँ समझती हैं
पीर के सबब को सब माइयाँ समझती हैं
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सोच आज तक भी जब, है गुलाम जैसी ही
मुल्क की अजादी क्या, बेडि़याँ समझती हैं
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दो बयाँ भले ही तुम देश की तरक्की के
हर खबर है सच कितनी सुर्खियाँ समझती हैं
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आप के बयानों में खूब है सफाई पर
बेवफा कहाँ तक हो, पत्नियाँ समझती हैं
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दोष तुम निगाहों को बेरूखी की देते हो
कान …
ContinueAdded by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 16, 2014 at 12:30pm — 11 Comments
** मेरे लिए आज मातृ दिवस और माँ की पुण्य तिथि का अद्भुत संयोग है l यह रचना माँ को समर्पित है l
जिंदगीभर कौन देता है खुशी माँ के सिवा
ले अॅधेरा कौन देता रौशनी माँ के सिवा
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वह लहू को कर सुधा हमको हमेशा पोषती
कौन खुद को यूँ गला दे जिंदगी माँ के सिवा
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बस रहे खुशहाल जग ये सोचकर भगवान भी
क्या बनाता और अच्छा इक नबी माँ के सिवा
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दे के रिमझिम जिंदगी भर वो तपन हरती रहे
कौन अपनाता बता दे तिश्नगी माँ के…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 11, 2014 at 10:00am — 16 Comments
रोज की है बादलों से छेड़खानी आपने
और गढ़ ली प्यास की कोई कहानी आपने
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चाह रखते हो भगीरथ सब कहें इतिहास में
पर न खुद से एक दरिया भी बहानी आपने
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बात करते गाँव की पर कब उसे तरजीह दी
गाँव को तम दे सजाई राजधानी आपने
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आपको दरिया मिली हर प्यास को सच है मगर
खोद कूआँ कब निकाला यार पानी आपने
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लाख दुख मैं मानता हूँ आपने झेले मगर
झोपड़ी का दुख न झेला …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 6, 2014 at 12:00pm — 14 Comments
2122 2122 2122 212
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हर खुशी हमको हुई है अब सवालों की तरह
और दुख आकर मिले हैं नित जवाबों की तरह
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चाँद निकला तो नदी में देख छाया खुश रहे
रोटियाँ अब हम गरीबों को खुआबों की तरह
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यूं कभी जिसमें कहाये यार हम महताब थे
उस गली में आज क्यों खाना खराबों की तरह
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एक भी आदत नहीं ऐसी कि तुझको गुल कहूँ
पास काँटें क्यों रखो फिर तुम गुलाबों की तरह
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है हमें तो जिन्दगी में साँस-धड़कन यार ज्यों
आप…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 1, 2014 at 9:30am — 13 Comments
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