२२१/२१२१/१२२१/२१२
जिसके लिए स्वयं को यूँ पाषान कर गये
दो फूल उसके आपको भगवान कर गये।१।
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कारण से कुछ के मस्जिदें बदनाम हो गयीं
मन्दिर को लोग कुछ यहाँ दूकान कर गये।२।
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करता रहा था जानवर रखवाली रातभर
बरबाद दिन में खेत को इन्सान कर गये।३।
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अपनी हुई न आज भी पतवार कश्तियाँ
क्या खूब दोस्ती यहाँ तूफान कर गये।४।
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दिखते नहीं दधीचि से परमार्थी सन्त अब
मरकर भी अपनी देह जो यूँ दान कर गये।५।
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माटी भी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 30, 2020 at 9:30am — 18 Comments
जिन्दगी की डाँट खाकर भी सँभल पाये न हम
चाह कर भी यूँ पुराना पथ बदल पाये न हम।१।
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एक संकट क्या उठा के साथ छूटा सबका ही
हाथ था सबने बढ़ाया किन्तु चल पाये न हम।२।
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फर्क था इस जिन्दगी को जीने के अन्दाज में
आप सा छोटी खुशी पर यूँ उछल पाये न हम।३।
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भूख तक तो ठीक था मुँह फेरकर सब चल दिये
लुट रही इन इज्जतों पर क्यों उबल पाये न हम।४।…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 28, 2020 at 6:55am — 6 Comments
२२१/२१२१/२२२/१२१२
कहते भरे हुए हैं अब भण्डार तो बहुत
लेकिन गरीब भूख से लाचार तो बहुत।१।
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फिरता है आज देखिए कैसे वो दरबदर
जिसने बनाये खूब यूँ सन्सार तो बहुत।२।
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मजदूर अब भी जा रहा पैदल चले यहाँ
रेलों बसों को कर रहे तैयार तो बहुत।३।
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बनता दिखा न आजतक हमको भवन कोई
रखते गये हैं आप भी आधार तो बहुत।४।
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सारे अदीब चुप हुए संकट के दौर में
सुनते थे यार उनका है बाजार तो बहुत।५।
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मजदूर सह किसान से जाने…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 24, 2020 at 11:11am — 13 Comments
२२१/२१२१/२२२/१२१२
पथ से खुशी के दुख भरे काँटे नहीं गये
निर्धन के पाँव से कभी छाले नहीं गये।१।
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दसकों गुजर गये हैं ये नारा दिये मगर
होगी गरीबी दूर के वादे नहीं गये।२।
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जिन्दा नहीं तो मरके वो पाये हैं लाख जो
मजदूर अपने गाँव के सस्ते नहीं गये।३।
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कहते हैं इसको आपदा चाहे जरूर वो
शासन से इसके पर कभी रिश्ते नहीं गये।४।
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किस्मत गरीब की रही झोपड़ ही घास की
आँगन में जिसके फूल के डाले नहीं…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 18, 2020 at 4:03pm — 7 Comments
२१२२/२१२२/ २१२२/२१२
शासकों को रोज अपनी दुख बयानी लिख रहे
एक चिकने घट को जैसे बूँद पानी लिख रहे।१।
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अधजली दंगों में थी अब अधमरी है रोगवश
पर खबर में खूबसूरत राजधानी लिख रहे।२।
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दान दाता बन गये कुछ एक मुट्ठी दे चना
खींचकर तस्वीर उसकी नित कहानी लिख रहे।३।
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आस में अच्छे दिनों की शह्र आये थे मगर
गाँव के वो आज सब को खूब मानी लिख रहे।४।…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 17, 2020 at 2:00pm — 6 Comments
२२१/ २१२१/२२२/१२१२
दिखती भला है अब किधर उम्मीद की चमक
खोने लगी है खुद सहर उम्मीद की चमक।१।
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माझी को धोखा दे गयी पतवार हर कोई
दरिया में जैसे हो लहर उम्मीद की चमक।२।
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बाँटेगा सबको आ के सच थोड़ी मिले भले
लेकर चला है वो अगर उम्मीद की चमक।३।
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कहते उसे किसान हैं निर्धन बहुत भले
झुकने न देगी उसका सर उम्मीद की चमक।४।
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लूटा गया है हर तरह उसको जहान में
आँखों में उसके है मगर उम्मीद की…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 12, 2020 at 7:38am — 8 Comments
करती सूखा बाढ़ बस, हलधर को भयभीत
बाँकी हर दुख पर रही, सदा उसी की जीत।१।
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नाविक हर तूफान से, पा लेगा नित पार
डर केवल पतवार का, ना निकले गद्दार।२।
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मजदूरी में दिन कटा, कैसे काटे रात
टपके का भय दे रही, निर्धन को बरसात।३।
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आते जाते दे हवा, दस्तक जिस भी द्वार
लेकर झट उठ बैठता, हर कोई तलवार।४।
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शासन बैठा देखता, हर संकट को मूक
निर्धन को भय मौत से, अधिक दे रही भूक।५।
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मानवता से प्रीत थी, पशुपन से भय मीत
इस…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 7, 2020 at 6:06am — 6 Comments
२२१/२१२१/२२२/१२१२
भटकन को पाँव की भला कैसे सफर कहें
समझो इसे अगर तो हम लटके अधर कहें।१।
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गैरों से जख्म खायें तो अपनों से बोलते
अपनों के दुख दिये को यूँ बोलो किधर कहें।२।
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बातें सुधार से अधिक भाती हैं टूट की
दीमक हैं देश धर्म को उन को अगर कहें।३।
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टूटन दरो - दीवार की करते रफू मगर
जाते नहीं हैं छोड़ कर घर को जो घर कहें।४।
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जाने हुआ है क्या कि सब लगती हैं रात सी
दिखती नहीं है एक भी जिसको सहर…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 4, 2020 at 7:41am — 7 Comments
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 2, 2020 at 9:41am — 6 Comments
द्वार पर वो नित्य आकर बोलता है
किन्तु अपना सच छुपाकर बोलता है।१।
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दोस्ती का मान जिसने नित घटाया
दुश्मनों को अब क्षमा कर बोलता है।२।
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हूँ अहिन्सा का पुजारी सबसे बढ़कर
हाथ में खन्जर उठाकर बोलता है।३।
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गूँज घन्टी की न आती रास जिसको
वो अजाँ को नित सुनाकर बोलता है।४।
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दौड़कर मंजिल को हासिल कर अभी तू
पथ में काँटे वो बिछा कर बोलता …
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 1, 2020 at 10:00pm — 5 Comments
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