गज़ल....खार रचता आदमी....
बह्र... 2122 2122 212
खुद को खुद से कब समझता आदमी.
जीत कर जब हार कहता आदमी
मौन में संजीवनी तो है मगर
मैं हुआ कब चुप अकडता आदमी.
आस्मां के पार भी खुशियां दुखी,
हर कदम पर शूल सहता आदमी.
फूल-कलियां मुस्कराती हर समय,
देवता को भेंट करता आदमी.
आदमी ही आदमी को पूजता,
आचरण पशुता अखरता आदमी.
प्यार में सम्वेदना …
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 24, 2015 at 8:17pm — 14 Comments
मत्तगयन्द सवैया // सात भगण + दो गुरू
बालक बुद्धि यही समझे, अखबार सुधार किया करते हैं।
जूठन खीर न दूध गिरे, इस हेतु बिछा भुइ को ढकते है।।
आखर-आखर कालिख ही, मन सोच-विचार भली कहते हैं।
मानव नित्य प्रलाप करे, अखबार प्रशासन ही छलते हैं।।
के0पी0सत्यम/ मौलिक व अप्रकाशित
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 24, 2015 at 7:08pm — 4 Comments
सम्प्रदायिक दंगा...
चौराहों पर भीड़ अकड़ कर
भड़ास निकालती
दूकानें घबराकर छिप जाते बन्द डिब्बों में
जनानी खिड़कियां दुबक जातीं
देर सुबह तक.....शायद अनि-िश्चत काल के लिए
बिना पंख की हवाएं बिखेरतीं, सौरभ-अफवाहें
अर्ध्द खुली मर्द खिड़कियां, अवाक!
शहर की गली, सड़क सब सॉय-सॉय
...फुफकारते काले नाग
शोक में, सब्जियां - फल सब दॉए-बॉए
नालियों में अपनी सूरतें देखतीं
सड़कों के मध्य चप्पलें दहाड़े मार कर रोती
जूते फटेहाल…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 17, 2015 at 8:30pm — 14 Comments
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 17, 2015 at 8:11pm — 12 Comments
किराए का घर--
शरीर,
लोभी और भोगी
सदैव आकर्षक, चकमक
किराए का घर
हवस की दीवारों पर टिकी
अहं - विकार की छत
बिखरी श्वेत चॉदनी पर चढा़ता
चाटुकारिता का रंग
टाड़-अलमारियों से झॉंकते
छल और कपट
सब मौन है।
ताख का टिमटिमाता दिया
किराएदार
आत्मा का वर्चस्व, संयमी-उद्यमी
र्निलिप्त कर्मो का प्रदाता
सॅवारता है सभी प्रकोष्ठ, सभ्य आचरण भी
बन्द खिड़कियो से चिपका
विवेक का वातानुकूलित सयंत्र
अनुरक्षण के दायित्व से…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 15, 2015 at 10:51pm — 6 Comments
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