तन्हा....
बहुत डरता हूँ
हर आने वाली
सहर से
शायद इसलिए कि
शाम ने सौंपी थी
जो रात
मेरे ख़्वाबों को
जीने के लिए
ढक देगी उसे सहर
अपने पैरहन से
हमेशा के लिए
और मैं
रह जाऊंगा
सहर की शरर से
छलनी हुए
ख्वाबों के साथ
तन्हा
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on July 23, 2017 at 9:18pm — 10 Comments
जाम ... (एक प्रयास)
२१२२ x २
शाम भी है जाम भी है
वस्ल का पैग़ाम भी है।l
हाल अपना क्या कहें अब
बज़्म ये बदनाम भी है।l
हम अकेले ही नहीं अब
संग अब इलज़ाम भी है।l
बाम पर हैं वो अकेले
सँग सुहानी शाम भी है।l
ख़्वाब डूबे गर्द में सब
संग रूठा गाम भी है।l
ख़ौफ़ क्यूँ है अब अजल से
हर सहर की शाम भी है ll
होश में आएं भला क्यूँ
संग यादे जाम भी है !l
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on July 21, 2017 at 5:30pm — 20 Comments
व्यर्थ है ...
व्यर्थ है
अपनी आशाओं को
दियों की
उदास पीली
मटमैली रोशनी में
मूर्त रूप देना
व्यर्थ है
प्रतीक्षा पलों की
चिर वेदना को
कपोलों पर
खारी स्याही से अंकित
शब्दों के स्पंदन को
मूर्त रूप देना
व्यर्थ है
शून्यता में विलीन
पदचापों को
अपने स्नेह पलों में
समाहित कर
मौन पलों को
वाचाल कर
मन कंदरा के
भावों को
मूर्त रूप…
Added by Sushil Sarna on July 18, 2017 at 10:00pm — 8 Comments
तृण तृण भीगा
प्रीत पलों का
सावन की बौछारों में
तड़पन भीगी
तन-मन भीगा
सावन की बौछारों में
बीती रैना
भीगे बैना
सावन की बौछारों में
पावस रुत में
नैना बरसे
सावन की बौछारों में
निष्ठुर पिया को
पल पल तरसे
सावन की बौछारों में
बादल गरजे
बिजली चमकी
सावन की बौछारों में
भीगी चौली
भीगी अंगिया
सावन की बौछारों में
चूड़ी खनकी
मिलन को तरसी
सावन की बौछारों में …
Added by Sushil Sarna on July 16, 2017 at 1:30pm — 6 Comments
नेम प्लेट ...
कुछ देर बाद
मिल जाऊंगा मैं
मिट्टी में
पर
देखो
हटाई जा रही है
निर्जीव काल बेल के साथ
लटकी
मेरी ज़िंदा
मगर
उखड़े उखड़े अक्षरों की
एक अजीब सी
चुप्पी साधे
पुरानी सी
नेम प्लेट
मुझसे पहले
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on July 14, 2017 at 3:30pm — 24 Comments
आसक्ति …….
परिचय हुआ जब दर्पण से
तो चंचल दृग शरमाने लगे
अधरों पे कम्पन्न होने लगा
पलकों में बिंब मुस्काने लगे ll
काजल मण्डित रक्तिम लोचन
अनुराग निशा से बढ़ाने लगे
कच क्रीडा में लिप्त समीर से
मेघ अम्बर में शरमाने लगे ll
लज्ज़ायुक्त स्वर्णिम कपोल पे
फिर जलद नीर बरसाने लगे
कनक कामिनी की काया पे
मधुप आसक्ति दर्शाने लगे ll
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on July 12, 2017 at 4:30pm — 15 Comments
चलो
जिन्दगी को
ज़रा करीब से देखें
दर्द को ज़रा
महसूस करके देखें
क्या खबर
कोई लम्हा
अपना सा मिल जाए कहीं
चलो
उस लम्हे को
जरा जी कर देखें//
जिन चेहरों पे हंसी
बाद मुद्दत के आई है
जिन आँखों में
अब सिर्फ और सिर्फ तन्हाई है
जिस आंगन में
धूप अब भी
सहमी सहमी आती है
उस आंगन के
प्यासे रिश्तों से
जरा रूबरू होकर देखें
चलो!
जिन्दगी को
जरा जी कर देखें//
हमारे अहसास
किसी…
Added by Sushil Sarna on July 9, 2017 at 4:30pm — 10 Comments
तिरंगे की लाज के लिए ....
न
मैं अब तुम्हें
मुड़ के न देखूँगा
अपने बढ़े कदम
विछोह के डर से
न रोकूंगा
जानता हूँ
कितना मुशिकल है
अपनी प्रीत को
दूर जाते हुए देखना
कतरा कतरा
अपने प्यार को
बिखरते हुए देखना
अपने सपनों को
अनजानी भोर की
बलि चढ़ते हुए देखना
पंखुड़ी की जगह
ओस को शूलों पर
सोते देखना
कितनी आँखों से तुम
अपने बहते दर्द को छुपाओगी
न
सब कुछ जानते हुए भी
मैं न…
Added by Sushil Sarna on July 8, 2017 at 2:30pm — 8 Comments
1. यारियां ...
एक ही पल में कितनी दूरियां हो जाती हैं
हर नफ़स अश्कों से यारियां हो जाती हैं
धड़कनें ख़ामोश ज़िस्म बेज़ान हो जाता है
गिरफ़्त में हालात के खुद्दारियां हो जाती हैं
....................................................
2. रूठे ...
न जाने कितने शबाबों की शराब अभी बाकी है
न जाने कितने जख्मों का हिसाब अभी बाकी है
कैसे चले जाएँ भला हम उठ के अभी मैखाने से
बेवज़ह रूठे हर सवाल का जवाब अभी…
Added by Sushil Sarna on July 7, 2017 at 9:30pm — 8 Comments
प्रेम ...
अनुपम आभास की
अदृश्य शक्ति का
चिर जीवित
अहसास है
प्रेम
मौन बंधनों से
उन्मुक्त उन्माद की
अनबुझ प्यास है
प्रेम
संवादहीन शब्दों की
अव्यक्त अभिव्यक्ति
का असीमित
उल्लास है
प्रेम
निःशब्द शब्दों को
भावों की लहरों पर
मुखरित करने का
आधार है
प्रेम
अपूर्णता को
पूर्णता में परिवर्तित कर
अंतस को
मधु शृंगार से सृजित कर…
Added by Sushil Sarna on July 4, 2017 at 9:22pm — 10 Comments
तुम्हारे हृदय में ...
ये
समय ठहरा था
या कोई स्मृति
वाचाल बन
मेरी शेष श्वासों के साथ
चन्दन वन की गंघ सी
मुझे
कुछ पल और
जीवित रखने का
उपक्रम कर रही थी
ये
समय का कौन सा पहर था
मैं पूर्णतयः अनभिज्ञ था
अपनी क्लांत दृष्टि से
धुंधली होती छवियों में
स्वयं को समाहित कर
अपने अंत को
कुछ पल और
जीवित रखने का
असफ़ल
प्रयास कर रहा था
शायद किसी के
इंतज़ार में
तुम…
ContinueAdded by Sushil Sarna on July 3, 2017 at 6:00pm — 8 Comments
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