स्वयं को आजमाने को
तू खुलकर आ जमाने में
बहुत अनमोल है जीवन
गवाँता क्यों बहाने में
नदी के पास बैठा है
दबा के प्यास बैठा है
तुझे मालूम है, तुझमें
कोई एहसास बैठा है
किनारे कुछ न पाओगे
मिलेगा डूब जाने में
तुम्हारे सामने दुनिया
सुनो रणभूमि जैसी है
स्वयं का तू ही दुश्मन है
स्वयं का तू हितैषी है
कहीं पीछे न रह जाना
स्वयं से ही निभाने में
कहाँ दसरथ की दौलत …
Added by आशीष यादव on July 1, 2021 at 2:30am — 4 Comments
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