फिर चुनावी दौर शायद आ रहा है
द्वेष का बाज़ार फिर गरमा रहा है
मेंमने की खाल में है भेड़िया जो
बोटियों को नोंच सबकी खा रहा है
इस तरह से सच भी दफ़नाया गया अब
झूठ को सौ बार वो दुहरा रहा है
क्या वफ़ादारी निभायी जा रही है
देवता, शैतान को बतला रहा है
बोझ दिल में सब लिए अपने खड़े हैं
ख़ुद-से ही हर शख़्स अब शरमा रहा है
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by नादिर ख़ान on August 18, 2013 at 8:00pm — 9 Comments
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