सुनो भैया !
कहीं मन नहीं लगता
जिधर देखती हूँ
तुम ही दिखाई देते हो
कभी आँगन में
माँ के साथ बैठे हुए, कभी
द्वार पर माँ के साथ
मन की बात करते हुए
मै जब भी आती थी
माँ के साथ-साथ तुम्हारे चेहरे पर भी
चमक आ जाती थी
माँ के आँचल की छाँव में
हम दोनों बचपन की यादें
याद कर खुश होते
और माँ भी युवा हो जाती थी
दिन कैसे बीत जाते पता ही नहीं चलता
अब वही घर है वही आँगन
पर ना तुम हो ना माँ…
Added by Meena Pathak on August 29, 2015 at 9:30am — 4 Comments
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