2122 2122 2122
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सिंधु मथते कर पड़ा छाला हमारे
हाथ आया विष भरा प्याला हमारे
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धूर्तता अपनी छिपाने के लिए क्यों
देवताओं दोष मढ़ डाला हमारे
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भाग्य सुख को ले चला जाने कहाँ फिर
डाल कर यूँ द्वार पर ताला हमारे
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हर तरफ फैले हुए हैं दुख के बंजर
खेत सुख के पड़ गया पाला हमारे
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राह देखी सूर्य की भर रात हमने
इसलिए तन पर लगा काला…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 27, 2014 at 11:14am — 10 Comments
2122 1221 2212
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नीर पनघट से भरना, बहाना गया
चाहतों का वो दिलकश जमाना गया
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दूरियाँ तो पटी यार तकनीक से
पर अदाओं से उसका लुभाना गया
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पेड़ आँगन से जब दूर होते गये
सावनों का वो मौसम सुहाना गया
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आ गये क्यों लटों को बिखेरे हुए
आँसुओं का हमारे ठिकाना गया
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नाम उससे हमारा गली गाँव में
साथ जिसके हमारा जमाना गया
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गंद शहरी जो गिरने…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 23, 2014 at 10:00am — 25 Comments
2222 2222 2222 222
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देता है आवाजें रूक-रूक क्यों मेरी खामोशी को
थोड़ा तो मौका दे मुझको गम से हम आगोशी को
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कब मागे मयखाने साकी अधरों ने उपहारों में
नयनों के दो प्याले काफी जीवन भर मदहोशी को
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देखेगी तो कर देगी फिर बदनामी वो तारों तक
अपना आँचल रख दे मुख पर दुनियाँ से रूपोशी को
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बेगानों की महफिल में तो चुप रहना मजबूरी थी
अपनों की महफिल में कैसे अपना लूँ बेहोशी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 20, 2014 at 11:21am — 24 Comments
1222 1222 1222 1222
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जहन की हर उदासी से उबरते तो सही पहले
जरा तुम नेह के पथ से गुजरते तो सहीे पहले
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हमारी चाहतों की माप लेते खुद ही गहराई
जिगर की खोह में थोड़ा उतरते तो सही पहले
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ये मिट्टी भी हमारी ही महक देती खलाओं तक
हमारे नाम पर थोड़ा सॅवरते तो सही पहले
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तुम्हें भी धूप सूरज की बहुत मिलती दुआओं सी
घरों से आँगनों में तुम उतरते तो सही पहले
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गलत फहमी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 17, 2014 at 9:30am — 18 Comments
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जन्म से ही यार जो बेशर्म है
पाप क्या उसके लिए, क्या धर्म है
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छेड़ मत तू बात किस्मत की यहाँ
साथ मेरे शेष अब तो कर्म है
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बोलने से कौन करता है मना
सोच पर ये शब्द का क्या मर्म है
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चाँद आये तो बिछाऊँ मैं उसे
एक चादर आँसुओं की नर्म है
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शीत का मौसम सुना है आ गया
पर चमन की ये हवा क्यों गर्म है
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( रचना - 30 जुलाई 2014 )
मौलिक…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 11, 2014 at 11:00am — 15 Comments
2122 2122 212
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मयकदे को अब शिवाले बिक गये
रहजनों के हाथ ताले बिक गये
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घर जलाना भी हमारा व्यर्थ अब
रात के हाथों उजाले बिक गये
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जो खबर थी अनछपी ही रह गयी
चुटकले बनकर मशाले बिक गये
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न्याय फिर बैसाखियों पर आ गया
जांच के जब यार आले बिक गये
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दुश्मनों की अब जरूरत क्या रही
दोस्ती के फिर से पाले बिक गये
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सोचते थे नींव जिनको गाँव की
वो शहर में बनके माले बिक गये
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मौलिक और…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 8, 2014 at 10:39am — 15 Comments
2122 2122 2122 212
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एक सरकस सी हमारी आज संसद हो गयी
लोक हित की इक नदी जम आज हिमनद हो गयी
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जुगनुओं से खो गये लीडर न जाने फिर कहाँ
मसखरों की आज इसमें खूब आमद हो गयी
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‘रेप’ को जोकर सरीखों ने कहा जब बचपना
जुल्म की जननी खुशी से और गदगद हो गयी
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दे रहे ऐसे बयाँ, जो जुल्म की तारीफ है
क्योंकि सुर्खी लीडरों का आज मकसद हो गयी
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जुल्म की सरहद…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on August 3, 2014 at 9:00am — 26 Comments
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