निश्चेष्ट धरा को
अपनी गोद में उठाए
समुद्र हाहाकार कर उठा
थरथराते होंठो से
अस्फुट से शब्द लहराए
अ...ब...और ...स...हा... न...हीं जा...ता..
वि...धा....ता!!
अशांत समुद्र ज्वार को
सम्भाल नहीं पा रहा था
फिर भी धरा को समझा रहा था
आओ सो जाते हैं
सब कुछ भूल जाते हैं
आदि से लेकर अंत तक
कहाँ रह पाए मर्यादित
मनुज की तृष्णा और लालसा से
सदैव रहे आच्छादित
आज जबकि काल की जिह्वा
लपलपा रही…
ContinueAdded by Gul Sarika Thakur on September 23, 2012 at 9:37pm — 5 Comments
जहाँ से यथार्थ की दहलीज
खत्म होती है
वहाँ से हसरतों का
सजा धजा बागीचा
शुरु होता है
जब भी कदम बढ़ाया
दहलीज फुफकार उठती है…
ContinueAdded by Gul Sarika Thakur on September 22, 2012 at 11:00pm — 11 Comments
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