तीर के अपने नियम हैं जिस्म के अपने नियम
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2122 2122 2122 212
तीर के अपने नियम हैं जिस्म के अपने नियम
एक का जो फर्ज़ ठहरा दूसरे का है सितम
कुछ हक़ीक़त आपकी भी सख़्त थी पत्थर नुमा
और कुछ मज़बूतियों के थे हमे भी कुछ भरम
मंजिले मक़्सूद है, खालिश मुहब्बत इसलिए
बारहा लेते रहेंगे मर के सारे फिर जनम
किस क़दर अपनी मुहब्बत मुश्किलों मे…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 25, 2014 at 7:00am — 30 Comments
“तालाब सूख जाएगा बरगद की छाँवों में ”
221 2121 1221 212
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अब आग आग है यहाँ हर सू फ़ज़ाओं में
तुम भी जलोगे आ गये जो मेरी राहों में
तिश्ना लबी में और इजाफ़ा करोगे तुम
ऐसे ही झाँक झाँक के प्यासी घटाओं में
वो शह्री रास्ते हैं वहाँ हादसे हैं आम
जो चाहते सकूँ हो, पलट आओ गाँवों में
तू देख बस यही कि है मंजिल…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 19, 2014 at 6:30am — 28 Comments
आदमी खुद को बनाता आदमी है आदतन
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२१२२ २१२२ २१२२ २१२
आदमी में जानवर भी जी रहा है फ़ित्रतन
आदमी में आदमी को देखना है इक चलन
साजिशें रचतीं रहीं हैं चुपके चुपके बदलियाँ
सूर्य को ढकना कभी मुमकिन हुआ क्या दफअतन ?
पर ज़रा तो खोलने का वक़्त दे, ऐ वक़्त तू
फिर मेरी परवाज़ होगी और ये नीला गगन
बाज, चुहिया खा …
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 15, 2014 at 4:30pm — 28 Comments
“ शाम ढले परबत को हमने सौंपे बंदनवार नए “
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लगे कमाने जब भी बच्चे बना लिए घर बार नए
मगर बुढ़ापे को क्या देंगे उस घर में अधिकार नए ?
आयातित हो गयी सभ्यता पच्छिम, उत्तर, दच्छिन की
बे समझे बूझे ले आये घर घर में त्यौहार नए
हाय बाय के अब प्रेमी सब, नमस्कार पिछडापन है
परम्पराएं आज पुरानी खोज रहीं स्वीकार नए
पत्ते - डाली ही काटे हैं , जड़ें वहीं की वहीं रहीं
इसी लिए तो…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 8, 2014 at 6:30pm — 25 Comments
छै दोहे – गिरिराज भंडारी
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भाव शिल्प में आ सके , बस उतना ही बोल
मन का दरवाज़ा अभी , मत पूरा तू खोल
यदि कोशिश निर्बाध हो, सध जाता है छंद
घबरा मत , शर्मा नहीं, गलती से मति मंद
गेय बनाना है अगर , छंद , कलों को जान
और रचेगा छंद जब , कल का रखना मान
शिल्प ज्ञान को पूर्ण कर , याद रहे गुरु पाठ
इंसा होके काम तू , मत करना ज्यों काठ
चाहे बातें हों कठिन , रखना भाषा…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 6, 2014 at 8:30am — 10 Comments
अच्छा ही करते हैं
कितना भी अपना हो
खून का हो या अपनाया हो प्यार से
मर जाने पर जला देते हैं
मुर्दा शरीर
न जलाएं तो सड़ने का डर बना रहता है
फिर इन्फेक्शन , बीमारी का भय
ज़िंदा लोगों के लिए खतरा ही तो है , किसी का मुर्दा शरीर
और फिर भूलने में भी सहायता मिलती है
कब तक याद करें
कब तक रोयें
जीतों को तो जीना ही है
अच्छा ही करते हैं जला के
कुछ रिश्ते भी तो मुर्दा हो जाते हैं / सकते…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on September 1, 2014 at 4:30pm — 20 Comments
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