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योगराज प्रभाकर's Blog – September 2010 Archive (5)

"OBO लाईव तरही मुशायरा 3"- एक रपट !

"ओपन बुक्स ऑनलाइन" के मंच से हमारे अजीज़ दोस्त राणा प्रताप सिंह द्वारा आयोजित तीसरे तरही मुशायरे में इस बार का मिसरा 'बशीर बद्र' साहब की ग़ज़ल से लिया गया था :



"ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई"



मुशायरे का आगाज़ मोहतरमा मुमताज़ नाज़ा साहिबा कि खुबसूरत गज़ल के साथ हुआ ! यूं तो मुमताज़ नाज़ा साहिबा की गज़ल का हर शेअर ही काबिल-ए-दाद और काबिल-ए-दीद था, लेकिन इन आशार ने सब का दिल जीत लिया :



//कारवां तो गुबारों में गुम हो गया

एक निगह रास्ते पर जमी रह गई

मिट गई… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on September 23, 2010 at 10:30am — 11 Comments

"OBO लाईव तरही मुशायरा 2" की सभी ग़ज़लें एक ही जगह

ओपन बुक्स ऑनलाइन पर जनाब राणा प्रताप सिंह जी द्वारा (११-१५ सितम्बर-२०१०) मुनाक्किद "OBO लाईव तरही मुशायरा 2" में तरही मिसरा था :



"उन्ही के कदमों में ही जा गिरा जमाना है"

(वज्न: १२१ २१२ १२१ २१२ २२)



उस मुशायरे में पढ़ी गईं सब ग़ज़लों को उनकी आमद के क्रम से पाठकों की सुविधा के लिए एक स्थान पर इकठ्ठा कर पेश किया जा रहा है !



// जनाब नवीन चतुर्वेदी जी //



(ग़जल-१)



फितूर जिनका लोगों को धता बताना है|

उन्हीं के कदमों में ही जा गिरा जमाना… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on September 23, 2010 at 10:30am — 2 Comments

जनाब हिलाल अहमद "हिलाल" के 5 कत'आत

//अर्ज़-ए-हाल//

हम अपनी जान किसी पर निसार कैसे करें,

तुझे भुला के किसी और से प्यार कैसे करें ,

तेरे बिछड़ने से दुनिया उजड़ गई दिल की,

इस उजड़े दिल को अब हम खुशगवार कैसे करें !



//सुराग़//

शब् भर हमारी याद में ऐसे जगे हो तुम,

आराम तर्क करके टहलते रहे हो तुम,

बिस्तर की सिलवटों से महसूस हो गया,

कुछ देर पहले उठ के यहाँ से गए ही तुम !



//माँ//

मेहनत के बावजूद जो पंहुचा मै अपने घर ,

वालिद का ये सवाल कमाया है तुने कुछ .

बीवी को… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on September 22, 2010 at 12:30pm — 1 Comment

जनाब हिलाल अहमद "हिलाल" के 7 कत'आत

//मशविरा//

हरगिज़ ना करना चाहिए इन्सान को गुरूर

दनिश्वरी के जौम में हो जाते हैं कुसूर

मैंने तमाम उम्र किया है सफ़र मगर

अब तक ज़मीं पे चलने का आया नहीं श'ऊर



//वाबस्तगी//

निगाह मिलते ही तुझको सलाम करता हूँ

तेरी नज़र का बड़ा एहतराम करता हूँ ,

मेरी ज़ुबां तेरी गुफ्तार से है वाबस्ता,

ये कौन कहता है सबसे कलाम करता हूँ !



//बदकिस्मती//

वो है मेरा रफीक मैं उसका रकीब हूँ

दुनिया समझ रही मैं उसके करीब हूँ

चाहा था जिसने मुझको मैं उसका… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on September 22, 2010 at 12:29pm — 2 Comments

ग़ज़ल - 8 (योगराज प्रभाकर)

रेशम के शहर आ बसा हूँ इस यकीन से

कोई तो मिले इश्क जिसे पापलीन से !



मैं चाँद सितारों के ज़िक्र में हूँ अनाड़ी,

इन्सान हूँ जुड़ा हुआ अपनी ज़मीन से !.



सच्चाई की तासीर तो कड़वी ही रहेगी,

आएगी न मिठास कभी भी कुनीन से !



मजबूरी-ए-हालात है कुछ और नहीं है,

जो मस्त लगा नाग सपेरे की बीन से !



बंगले मकान तो यहाँ लाखो ही मिलेंगे

घर ढूँढना पड़ेगा मगर दूरबीन से !



सर को उठाऊँ ग़र तो चूल्हा रहे ठंडा,

सर को झुकाऊँ गर तो गिरता हूँ… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on September 7, 2010 at 10:00am — 21 Comments

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