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विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी's Blog – October 2013 Archive (2)

कितने कर्ण?

जाने कितने कर्ण जन्मते यहाँ गली फुटपाथों पर। 

या गंदी बस्ती के भीतर या कुन्ती के जज्बातों पर॥

कुन्ती इन्हें नहीं अपनाती न ही राधा मिलती है।

इसीलिये इनके मन में विद्रोह अग्नि जलती है॥

द्रोण गुरु से डांट मिली और परशुराम का श्राप मिला। 

जाति- पांति और भेदभाव का जीवन में है सूर्य खिला॥

सभ्य समाज में कर्ण यहाँ जब- जब ठुकराये जाते हैं।

दुर्योधन के गले सहर्ष तब- तब ये लगाये जाते हैं।

इनके भीतर का सूर्य किन्तु इन्हें व्यथित करता रहता।

भीतर ही भीतर इनकी…

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Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on October 29, 2013 at 11:00am — 8 Comments

यदि मैं भी रावण बन जाऊँ

यदि मैं भी रावण बन जाऊँ।

इन्द्रिय लोलुप इन्द्र विरुद्ध मैं, इन्द्रजीत सुत जाऊँ।

धरे लूट धन धन कुबेर जो, उसको अभी छुड़ाऊँ॥

भंग करे जो भगिनि अस्मिता, अंग भंग करवाऊँ।

घर के भेदी को तत्क्षण मैं, घर से दूर भगाऊँ॥

आँख उठाये देश तरफ वो, सिर धड़ से अलग कराऊँ।

बैरी बनकर ईश भी आयें, उनसे बैर उठाऊँ॥

नहीं देश में घुसने दूँ मैं, दसों शीश कटवाऊँ।

कर विकास निज मातृभूमि का, लंका स्वर्ण बनाऊँ॥

वैज्ञानिक तकनीकि उन्नति, स्वर्ग धरा पर लाऊँ।

शनि सम क्रूर जनों को अपने,… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on October 24, 2013 at 8:10am — 9 Comments

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