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Rajesh kumari's Blog – October 2016 Archive (4)

देखिये साहिब मेरा तो घर शिवाला हो गया (ग़ज़ल 'राज ')

२१२२ २१२२ २१२२ २१२

मेरी बगिया खिल उठी मौसम निराला हो गया

आ गई  बेटी मेरे घर में उजाला हो गया

 

दीप खुशियों के जले शुभ शंख मानो बज उठे

देखिये साहिब मेरा तो घर शिवाला हो गया

 

लहलहाई यूँ फसल खेतों की मेरी देखिये

सोने चाँदी से मढ़ा इक इक निवाला हो गया 

 

बिन सुरा सागर के जैसे खाली था मेरा वजूद   

आते ही उसके लबालब ये पियाला  हो गया

 

पढ़ते पढ़ते रात दिन आँखें मेरी थकती नहीं

उसका चेह्रा खूबसूरत इक…

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Added by rajesh kumari on October 23, 2016 at 12:55pm — 20 Comments

‘जीत का सेहरा’ (लघु कथा ‘राज’)

 

युद्ध  थम चुका था जश्न भी मना चुके थे पनडुब्बी ,हवाई जहाज ,टैंक बहुत खुश दिखाई दे रहे थे  तीनों का सीना गर्व से फूला था| युद्ध  की घटनाओं का तीनों ही बढ़ चढ़ कर जिक्र कर रहे थे न जाने कहाँ से वार्तालाप में अचानक मोड़ आया कि एक के बाद एक तीनों ही अपनी अपनी सफलताओं का बखान करने लगे |

टैंक बोला- “सबसे आगे मैं था कुचल डाला सबको मेरा तो डीलडौल  और रौब देख कर ही दुश्मन की घिघ्घी बंध गई थी”|

 “अरे तुझे क्या पता तेरे ऊपर मैं दुश्मनों को कवर कर रहा था वरना मेरे सामने तेरी क्या…

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Added by rajesh kumari on October 16, 2016 at 6:00pm — 10 Comments

जय-जय हिन्दुस्तान (दोहा गीत 'राज ')

दोहा गीत

आज़ादी की राह में ,शत शत वो बलिदान|

याद कहो कितना रहा ,बोलो हिन्दुस्तान||

 

सावरकर की यातना,देखी थी प्रत्यक्ष|

अंडमान की जेल में,काँपे पीपल वृक्ष||

संग्रामी आक्रोश में ,कितने बुझे चिराग|

कितनी टूटी चूड़ियाँ,कितने मिटे सुहाग||

 

कितनी दी कुर्बानियाँ,तब पाया सम्मान|

याद कहो कितना रहा ,बोलो हिन्दुस्तान||

 

रहे सदा जाँ बाज वो,हर सुख से महरूम|

झूल गये जो जान पर,उन फंदों को चूम||

नेहरू गाँधी…

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Added by rajesh kumari on October 9, 2016 at 8:44pm — 11 Comments

आइना ये पत्थरों की मार कैसे सह गया (ग़ज़ल 'राज ')

2122  2122  2122  212

इक मुहब्बत का महल कब चुपके चुपके ढह गया

बिन किये आवाज सब आँखों का काजल कह गया

 

अनमनी सी वो अकेली रह गई किश्ती खड़ी

पाँव के नीचे से ही सारा समन्दर बह  गया

 

वो खुदा भी उस फ़लक से देख कर हैरान है

आइना ये पत्थरों की मार कैसे सह  गया

 

ठोकरों ने ही तराशे वो पशेमाँ पंख फिर

ताकते परवाज़ से पीछे गुज़शता रह गया

 

फूल से भी जो हथेली सुर्ख  होती थीं  कभी

उस हथेली में पिघल कर आज सूरज बह…

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Added by rajesh kumari on October 7, 2016 at 7:41pm — 18 Comments

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