घर में वह नोट कितना बड़ा लग रहा था , मगर बाज़ार में आते ही बौना हो कर रह गया । वह समझ नहीं पा रहा था कि क्या खरीदें , क्या न खरीदें । मुन्ना निश्चय ही पटाखे - फुलझड़ियों का इंतज़ार कर रहा होगा । उसकी बीवी खोवा, मिठाई , खील- बताशे और लक्ष्मी - गणेश की मूर्तियों की आशा लिए बैठी होगी, ताकि रात की पूजा सही तरीके से हो सके ।
वह बड़ी देर तक बाज़ार में इधर उधर भटकता रहा । शायद कहीं कुछ सस्ता मिल जाए । मगर भाव तो हर मिनट में चढ़ते ही जा रहे थे । हार कर उसने कुछ भी खरीदने का इरादा छोड़ दिया ।…
Added by ARVIND BHATNAGAR on October 24, 2013 at 9:00pm — 23 Comments
जाने किस आशंका से
त्रस्त मन /
झंझावात मे
नन्हा सा दिया /
अब बुझा कि तब बुझा /
अर्थहीन शब्दों के सहारे
घिसटती ज़िन्दगी
क्या यही है ?
किम्वदन्ति बन गई है
तथागत को मिली शान्ति /
आत्म मंथन करने पर
कालिख ही कालिख हाथ लगी /
दोषारोपण सवेरो पर ,
सूरज की किरणे
किसी अंधी गली में सोई मिली ।
मौलिक एवं अप्रकाशित
अरविन्द भटनागर 'शेखर'
Added by ARVIND BHATNAGAR on October 22, 2013 at 9:30pm — 11 Comments
हर इंसान के जीवन में
एक लम्हा
ऐसा आता है /
वक़्त नहीं थमता,
वह लम्हा
रह जाता है खड़ा हुआ
ज्यों चित्रलिखित सा ।
और कभी
जब चलते चलते
थक जाता है वक़्त
तो
इस लम्हे की छाया में
कुछ देर बैठ कर सुस्ताता है|
और कभी
जब बदली छा जाती है ,
और मन का पंछी
घबरा जाता है
तो यह लम्हा
इन्द्रधनुष सा
आसमान में बिखर जाता है /
और ये मौसम पहले जैसा खुशगवार
फिर हो जाता है ।
मै तो ऐसा…
ContinueAdded by ARVIND BHATNAGAR on October 16, 2013 at 4:27pm — 15 Comments
इन मौन चट्टानों के सामने खड़ा
यह सोचता हूँ ,
कितनी कठोर हैं ये /
जितनी कठोर लगती हैं
क्या उतनी ही?
या कहीं ज्यादा ?
क्या भेद सकेगा कोई इनको?
और फिर मैं देखता हूँ
आकाश की ओर /
बदली छाई है ,
धूप का कतरा नहीं है ।
और फिर क्या देखता हूँ
तोड़ कर प्रस्तर कवच को ,
मोतियों सा झर रहा है ,
दुधिया झरना ।
भूल जाता हूँ मैं
कि
कितने कठोर हैं ये पाषाण खंड ,
कि
मैं इन्हें भेद नहीं…
Added by ARVIND BHATNAGAR on October 2, 2013 at 12:30pm — 22 Comments
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