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Vijay nikore's Blog – October 2013 Archive (5)

विसंगति ... विजय निकोर

विसंगति

अंतरंग मित्र

हितैषी मेरे

हँसती रही हैं साँसें मेरी

स्वप्निल खुशी में तुम्हारी

सँजोए कल्पना की दीप्ति

फिर क्यूँ तुम्हारी खुशी के संग

यूँ उदास है मन

आज

अपने लिए ...?

यादों के झरोखों के इस पार

पावन-समय-पल कभी भटकें

कभी लहराएँ, मंडराएँ

ले आएँ रश्मि-ज्योति द्वार तुम्हारे

हँस दो, हँसती रहो, तारंकित हो आँचल

मुझको तो अभी गिनने हैं तारे

सुदूर-स्थित…

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Added by vijay nikore on October 23, 2013 at 1:00pm — 22 Comments

भूख ... विजय निकोर

भूख  

 

 

यह सच्ची घटना कई साल पहले की है जब मैं मात्र १८ वर्ष का था। गुजरात के आनन्द शहर से दिल्ली जा रहा था। रास्ते में बड़ोदा (अब वरोदरा) स्टेशन पर ट्रेन बदलनी थी.. फ़्रन्टीयर मेल के आने में अभी २ घंटे बाकी थे। रात के लगभग ११ बजे थे। समय बिताने के लिए मैं स्टेशन के बाहर पास में ही सड़क पर टहलने चला गया। एक चौराहे पर छोटी-सी लगभग ५ साल की बच्ची खड़ी रो रही थी, रोती चली जा रही थी। मेरा मन विचलित हुआ। मैंने उससे पूछा..." क्या नाम है तुम्हारा?" ..वह रोती चली गई। पास में एक…

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Added by vijay nikore on October 13, 2013 at 12:00pm — 17 Comments

मेरी प्रिय अमृता जी ... संस्मरण...२

मेरी प्रिय अमृता जी ... संस्मरण...२

 

(अमृता प्रीतम जी से मिलने के सौभाग्य का प्रथम संस्मरण "संस्मरण ... अमृता प्रीतम जीओ.बी.ओ. पर जनवरी में आ चुका है)

कहते हैं, खुशी और ग़म एक संग आते हैं ..…

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Added by vijay nikore on October 6, 2013 at 3:30pm — 30 Comments

हल्की-सी उदासी ...विजय निकोर

हल्की-सी उदासी

 

भावों की आहट

हल्की-सी उदासी

तुम्हें उदास देख कर ...

 

हल्की-सी उदासी

अँधेरे की थाहों में तुम्हें

कुछ टटोलते देख कर...

 

कुछ पहचानी कुछ अनजानी

तुम्हारी चुप्पी भी

चुभती है बहुत ...

 

सिन्दूर जो तुम्हारी मांग में

सजने को था

बिखरा पड़ा ...

 

सहसा हिल जाता है दिल

सोचते, ख़्यालों के कंगूरों पर कहीं

अकेली, तुम रो तो नहीं…

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Added by vijay nikore on October 5, 2013 at 8:00am — 32 Comments

आत्म-मन्थन

आत्म-मन्थन

कभी-कभी इन दिनों

आत्म-मन्थन करती

जीवन के तथ्यों को तोलती

मेरी हँसती मनोरम खूबसूरत ज़िन्दगी

जाने किस-किस सोच से घायल

कष्ट-ग्रस्त

‘अचानक’ बैठी उदास हो जाती है

 

लौट आते हैं उस असामान्य पल में

कितने टूटे पुराने बिखरे हुए सपने

भय और शंका और आतंक के कटु-भाव

रौंद देते हैं मेरा ज्ञानानुभाव स्वभाव

और उस कुहरीले पल का धुँधलापन ओढ़े

अपने मूल्यों को मिट्टी के पहाड़-सा…

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Added by vijay nikore on October 1, 2013 at 1:30pm — 26 Comments

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