२११२ २१२२ १२२१ २२१२ २२
लोग हुनरमंद कितने किसी को गुमाँ तक नहीं होता
आग लगाते वो कुछ इस तरह जो धुआँ तक नहीं होता
जह्र फैलाते हुए उम्र गुजरी भले बाद में उनकी
मैय्यत उठाने कोई यारों का कारवाँ तक नहीं होता
आज यहाँ की बदल गई आबो हवा देखिये कितनी
वृद्ध की माफ़िक झुका वो शजर जो जवाँ तक नहीं होता
मूक हैं लाचार हैं जानवर हैं यही जिंदगी इनकी
ढो रहे हैं बोझ पर दर्द इनका बयाँ तक नहीं होता
ख़्वाब सजाते…
ContinueAdded by rajesh kumari on November 30, 2014 at 7:05pm — 23 Comments
आ चल बुने राष्ट्रीय स्वेटर
सहिष्णुता की ऊन का गोला
सलाइयाँ सद्व्यवहार की
रंग रंग के डालें बूटे
मनुसाई कतारें प्यार की
करें बुनाई सब मिलजुल कर
आ चल बुने राष्ट्रीय स्वेटर
अब सर्दी का लगा महीना
देश मेरा ये थर-थर काँपे
एक-एक मिल भरें उष्णता
शाल बना कांधों पर ढापें
धूप-धूप गूँथे प्रभाकर
आ चल बुने राष्ट्रीय स्वेटर
हिंदू मुस्लिम सिक्ख…
ContinueAdded by rajesh kumari on November 24, 2014 at 11:07am — 25 Comments
1222 1222 1222 1222
नहीं होता तो क्या होता अगर होगा तो क्या होगा
कभी तुमने बचाया क्या अभी खोया तो क्या होगा
जमाने को सिखाया है हुनर तुमने यही अब तक
वफ़ा करके कभी खुद को मिले धोखा तो क्या होगा
किसी की जिन्दगी में तुम उजाला कर नहीं सकते
अगर खुर्शीद भी दिन में न अब जागा तो क्या होगा
चले हो आबशारों को जलाने आग से अपनी
समंदर ने तुम्हारा रास्ता रोका तो क्या होगा
लिए वो हाथ में पत्थर कभी फेंका…
ContinueAdded by rajesh kumari on November 18, 2014 at 10:43pm — 25 Comments
तुमने बुलाया और मैं चली आई
मगर तुम भी जानते हो
न तुमने दिल से बुलाया
न मैं दिल से आई
अच्छा हुआ जो तुम
मेरी महफ़िल में नहीं आये
क्यूंकि तुम अदब से आ नहीं सकते थे
और मैं औपचारिकतानिभा नहीं सकती थी
आयोजन में कस के गले मिले और बोले
अरे बहुत दिनों बाद मिले हो
अच्छा लगा आप से मिलकर
सुनकर हम दोनों के घरों के पड़ोसी गेट हँस पड़े
सुबह से भोलू गांधी जी की प्रतिमा…
ContinueAdded by rajesh kumari on November 16, 2014 at 1:00pm — 14 Comments
१२२ १२२ १२२ १२२
नहीं पाँव दिखते जहाँ पर खड़े हो
बताओ जरा क्या तुम इतने बड़े हो?
उड़ाया जिसे ठोकरों से हटाया
उसी ख़ाक के तुम छलकते घड़े हो
जमाना नया है नयी नस्ल आई
पुराने चलन पर अभी तक अड़े हो
झुकी कायनातें झुका आसमां तक
न सोचो खुदी को फ़लक पे जड़े हो
वही रास्ते हैं वही मंजिलें हैं
वही कारवाँ है मगर तुम छड़े हो
जहाँ है मुहब्बत वहीँ हैं उजाले
निहाँ तीरगी है जहाँ गिर पड़े हो…
ContinueAdded by rajesh kumari on November 1, 2014 at 12:45pm — 32 Comments
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