ठिठुरती उँगलियाँ
ठिठुरती काँपती उँगलियाँ
तैयार नहीं छूने को कागज़ कलम
कैसे लिखू अब कविता मैं
बिन कागज़ बिन कलम
भाव मेरे सब घुल रहे हैं
गरम चाय की प्याली में
निकले कंठ से स्वर भी कैसे
जाम लग गया ,कंठ नली में
धूप भी किसी मज़दूरन सी
थकी हारी सी आती है
कभी कोहरे की चादर ओढे
गुमसुम सी सो जाती है
सुबह सवेरे ओस कणों से
भीगी रहती धरती सारी
शायद, रात कहर से आहत…
ContinueAdded by Maheshwari Kaneri on December 28, 2013 at 3:30pm — 9 Comments
रिश्तों की ताप
बर्फ सी ठंडी हथेली में, सूरज का ताप चाहिए
फिर बँध जाए मुट्ठी, ऐसे जज्बात चाहिए ।
बाँध सर पे कफन, कुछ करने की चाह चाहिए
मर कर भी मिट न सके, ऐसे बेपरवाह चाहिए।
मन में उमड़ते भावों को,शब्दों का विस्तार चाहिए
शब्द भाव बन छलक उठे,ऐसे शब्दों का सार चाहिए।
पथरा गई संवेदनाएं जहाँ , रिश्तों की ताप चाहिए
चीख कर दर्द बोल उठे,अहसासों की ऐसी थाप चाहिए।
चीर कर छाती चट्टानों…
ContinueAdded by Maheshwari Kaneri on December 17, 2013 at 12:30pm — 15 Comments
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