चुटकियाँ- ….. …
नेता क्या और भाषण क्या
भाषण पे अनुशासन क्या
मूक बधिर इस जनता को
व्यर्थ में आश्वासन क्या !!1!!
देश क्या विकास क्या
बिन कुर्सी मधुमास क्या
छल करते जो नित् निर्बल से
उस आवरण का विश्वास क्या !!2!!
नीति क्या अनीति क्या
भ्रष्ट की सोच से प्रीति क्या
जनता के जो खून से जिन्दा
उस नेता की परिणति क्या !!3!!
फ़र्ज़ क्या …
Added by Sushil Sarna on December 24, 2015 at 1:27pm — 6 Comments
ये सिलसिला .......
सच ! कितना स्वार्थी है इंसान
हर जीत पे मुस्कुराता है
हर हार से जी चुराता है
अपने स्वार्थ की पगडंडी पर अक्सर
वो हर रास्ते से नाता जोड़ लेता है
हर मोड़ पे इक दर्द को छोड़ देता है
हर कसम तोड़ देता है
मुहब्बत की पाक इबारत पे
वासना की कालिख पोत देता है
जिस्म के रोएँ रोएँ में
नफ़रत की फसल छोड़ देता
किसी ज़िंदगी को नरक कर
उसके अरमानों को रौंद देता है
किसी की पाकीज़गी को
चीत्कारों से ढक देता है
उफ़ !…
Added by Sushil Sarna on December 21, 2015 at 8:08pm — 4 Comments
नई पसंद का जमाना ... (110 वीं रचना )
राम राम भाई
आज दुकान खोलने में बड़ी देर लगाई
हमने भी पड़ोसी को राम राम कहा
और अपनी नासाज़ तबियत का हवाला देते हुए
अपनी दुकान का शटर उठाया
धूप अगरबत्ति जलाकर
उसके धुऐं को दुकान और गल्ले में घुमाया
प्रभु को शीश नवाकर
अच्छी बोहनी के लिए प्रार्थना करके
धूपदानी प्रभु के आगे रखी ही थी कि
एक ग्राहक ने अपनी उपस्थिति दर्ज कराई
हमने चौंक कर
अपनी सुराहीदार गर्दन को
भगवान बने ग्राहक की तरफ घुमाया…
Added by Sushil Sarna on December 15, 2015 at 12:45pm — 4 Comments
हकीकत.....
उस दिन
जब तुमने मेरे काँधे पे
अपना हाथ रखा था
कितने ख़ुशनुमा अहसास
मेरे ज़हन में
उत्तर आये थे
लगा भटकी कश्ती को
जैसे साहिलों ने
अपनी आगोश में ले लिया हो
मगर मैं उन सुकून देते लम्हों को
कहाँ पहचान पायी थी
क्या खबर थी कि तुम
इज़हारे मुहब्बत के बहाने
मेरे कमजोर कांधों की
ताकत नाप रहे थे
मैंने तुम्हें अपना सागर मान
अपने वज़ूद को
तुम्हें सौंप दिया
आज तक
तुम्हारी उँगलियों की वो छुअन…
Added by Sushil Sarna on December 14, 2015 at 1:00pm — 4 Comments
मर्यादा ....
चक्षु को चक्षु से देखा
करते हमने द्वंद
उलझे करों को
देख इक दूजे में
हम तो रह गये दंग
आँख बचा कर
कब बाला ने
बदला कपोल का रंग
वर्तमान में बेहयाई का
हुआ ये आम प्रसंग
संस्कारों को त्याग जोड़े ने
अधर मिलाये संग
समझ न आये
क्यूँ इस युग में
कपडे हो गये तंग
मृग नयनी का
नशा देख के
फीकी पड़ गयी भंग
बैठ बाईक पर
दौड़ चले फिर
इक दूजे के संग
शर्मो-हया की चिंता किसे अब
सतरंगी है मन…
Added by Sushil Sarna on December 8, 2015 at 7:15pm — 2 Comments
अधूरे हर्फ़ :..........
हंसी आती है
अपने ख्यालों पर
मेरे तसव्वुर में
तुम जब भी आती हो
इक अधूरी ग़ज़ल की तरह आती हो
नज़र से नज़र मिलती ही
एक अजीब सी सिहरन होती है
तुम किताब के रूठे हर्फों की तरह
किसी कोने में सिमटी रहती हो
मैं अपने अधूरे हर्फों को
इक मुकम्मल शक्ल देने की कोशिश में
तमाम शब चरागों में झिलमिलाते
तुम्हारे अक्स के साथ
गुज़ार देता हूँ
सहर होने के साथ
हम अधूरे लफ़्ज़ों के तरह
मुकम्मल होने के लिए…
Added by Sushil Sarna on December 7, 2015 at 8:04pm — 2 Comments
साये....
रहने दो
तुम सायों की खामोशी क्या जानो
तुम सिर्फ खोखले अहसासों के
सूखे शज़र हो
साये का दर्द तो सिर्फ
ज़मीन सहती है
हर जिस्मानी खरोंच को
खामोशी से पी जाती है
उफ़ नहीं करती
रेज़ा रेज़ा बिखरती
तारीक में सिमट जाती है
जब कोई तन्हा शब
किसी परिंदे की तरह
पेड़ पर फड़फड़ाती है
बेतरतीब से सलवटों में
तब वफा भी कराहती है
गुजरे लम्हों के साये
तमाम उम्र
जीने की सजा दे जाते हैं
ज़िस्म की कश्कोल में…
Added by Sushil Sarna on December 2, 2015 at 8:02pm — 12 Comments
टीस.....
चलो न
कुछ और बात करते हैं
अपनी अपनी टीस से
मुलाक़ात करते हैं
नेह से देह की थकान
तो अधरों से तृप्ति हारी है
सच कहूँ तो
बीती हुई रात की
चुपके से हुई बात
कुछ तेरी पलक पर
तो कुछ मेरी पलक पर
अभी तक भारी है
जूही के फूलों में लिपटे
वो स्वप्निल लम्हे
अस्त व्यस्त से सलवटों में
अपनी गंध से
अलौकिक अनुभूति की
व्याख्या करते प्रतीत होते हैं
निर्वसन शरीर के उजास की चांदनी
एकान्तता से लिपट…
Added by Sushil Sarna on December 1, 2015 at 7:45pm — 10 Comments
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