आस का पंछी
मन इक् आस का पंछी
मत क़ैद करो इसे
क़ैद होंने के लिए
क्यां इंसान के
तन कम हैं
Added by rajni chhabra on June 19, 2010 at 1:00am —
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उमर भर
का साथ
निभ जाता
कभी एक ही
पल मैं
बुलबुले मैं
उभरने वाले
अक्स की उमर
होती है
फक्त एक ही
पल की
Added by rajni chhabra on June 16, 2010 at 12:40am —
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सर्दी मैं गर्मी और
गरमी मैं शीतलता
का एहसास
प्यार के ताने बने से बुनी
ममतामयी माँ
के आँचल सी
खादी केवल नाम नही हैं
खादी केवल काम नहीं हैं
खादी परिचायक है
सवाव्लंबन का
स्वाभिमान का
देश के प्रति
आपके अभिमान का
रंग उमंग और
प्यार के धागे से बुनी
देश ही नहीं
विदेश मैं भी पाए विस्तार
खादी को बनाइये
अपना जूनून
खादी दे
तन मन को सुकून
Added by rajni chhabra on June 14, 2010 at 4:35pm —
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तकदीर
गर रोने सी ही
बदल सकती तकदीर
यह ज़मीन बस सैलाब होती
गर अश्क बहाने सी होती
हर गम की तदबीर
यह नम आंखें
कभी बेआब न होती
Added by rajni chhabra on June 4, 2010 at 8:50am —
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काश!
काश!अपना कह देने भर से ही
गैर अपने होते
तो अनजान शहर में भी
अजनबी लोगों से घिरे
खुशनमा सपने होते
मगर हकीकत तो यह की
अपने ही शहर में अपने
बेगानों सा मिला करते हैं
क्यों खफा रहते हैं आप हम से
इस पर यह गिला करते हैं
रजनी छाबरा
Added by rajni chhabra on June 2, 2010 at 9:00am —
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बाल श्रमिक
वह जा रहा है बाल श्रमिक
अधनंगे बदन पर लू के थपेड़े सहते
तपती,सुलगती दुपहरी मैं,सर पर उठाये
ईंटों से भरी तगारी
सिर्फ तगारी का बोझ नहीं
मृत आकांक्षाओं की अर्थी
सर पर उठाये
नन्हे श्रमिक के बोझिल कदम डगमगाए
तन मन की व्यथा किसे सुनाये
याद आ रहा है उसे
मां जब मजदूरी पर जाती और रखती
अपने सर पर ईंटों से भरी तगारी
साथ ही रख देती दो ईंटें उसके सर पर भी
जिन हालात मैं खुद जे रही थी
ढाल दिया उसी मैं बालक को भी
माँ के…
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Added by rajni chhabra on June 1, 2010 at 1:33am —
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ज़रा सोच लो
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दूसरों को ठोकरें मारने वालो
ज़रा सोच लो एक पल को
पराये दर्द का एहसास
तुम्हे भी सालेगा तब
ज़ख़्मी हो जायेंगे
तुम्हारे ही पाँव जब
दूसरों को ठोकरें मारते मारते
रजनी छाबरा
Added by rajni chhabra on May 28, 2010 at 2:40pm —
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लोरी---एक राजस्थानी लघुकथा
फुटपाथ पर जीवन बितानेवाली एक गरीब औरत,भूखे बालक को गोद में लिए बैठी थी.भूखे बालक की हालत बिगड़ती जा रही थी.
थोड़ी दूरी पर,बरसों से जनता को सुंदर,सुंदर,मीठे मीठे सपने दिखने वाले नेताजी भाषण बाँट रहे थे.
भाषण के बीच में बालक रो दिया.माँ ने कह,"चुप,सुन,नेताजी कितनी मीठी लोरी सुना रहें हैं." नेताजी कह रहे थे,"मैं देश से गरीबी-महंगाई मिटा दूंगा.देश फिर से सोने की चिड़िया बन जायेगा,घी दूध की नदियाँ बहेंगी
.कोई भूखा नहीं मरेगा...."
यह सुन कर खुश होती…
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Added by rajni chhabra on May 22, 2010 at 10:15am —
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पतंग सा शोख मन
लिए
चंचलता अपार
छूना चाहता है
पूरे नभ का विस्तार
पर्वत,सागर,अट्टालिकाएं
अनदेखी कर
सब बाधाएं
पग आगे ही आगे बढाएं
ज़िंदगी की थकान को
दूर करने के चाहिए
मन की पतंग
और सपनो का आस्मां
जिसमे मन भेर सके
बेहिचक,सतरंगी उड़ान
पर क्यों थमाएं डोर
पराये हाथों मैं
हर पल खौफ
रहे मन मैं
जाने कब कट जाएँ
कब लुट जाएँ
चंचलता,चपलता
लिए देखे मन
ज़िन्दगी के…
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Added by rajni chhabra on May 15, 2010 at 2:00pm —
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सांझ
के झुटपुट
अंधेरे मैं
दुआ के लिए
उठा कर हाथ
क्या
मांगना
टूटते
हुए तारे से
जो अपना
ही
अस्तित्व
नहीं रख सकता
कायम
माँगना ही है तो मांगो
डूबते
हुए सूरज से
जो अस्त हो कर भी
नही होता पस्त
अस्त होता है वो,
एक नए सूर्योदय के लिए
अपनी स्वर्णिम किरणों से
रोशन करने को
सारा ज़हान
Added by rajni chhabra on May 13, 2010 at 9:09am —
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ज़िन्दगी और
मौत के बीच
zindagi से lachaar
से पड़ी थी तुम
मन ही मन तब चाहा था मैंने
की आज तक तुम मेरी माँ थी
आज मेरी बेटी बन जाओ
अपने आँचल की छाओं मैं
लेकर करूं तुम्हारा दुलार
अनगिनत
mannaten
खुदा से कर
मांगी थी तुम्हारी जान की खैर
बरसों तुमने मुझे
पाला पोसा और संवारा
सुख सुविधा ने
जब कभी भी…
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Added by rajni chhabra on May 9, 2010 at 12:14am —
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खुद से रु ब रु होने के बाद भी
हम अपनी पहचान के लिए
आएने क्यों तलाशते हैं
आएने झलक दिखा देते हैं
जिस्मानी अक्स की
रुहानी अक्स की पहचान
हम इन में कहाँ पाते हैं
Added by rajni chhabra on April 12, 2010 at 9:28am —
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हम जिंदगी से क्या चाहते हैं
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हम खुद नहीं जानते
हम जिंदगी से क्या चाहते हैं
कुछ कर गुजरने की चाहत मन में लिए
अधूरी चाहतों में जिए जाते हैं
उभरती हैं जब मन में
लीक से हटकर ,कुछ कर गुजरने की चाह
संस्कारों की लोरी दे कर
उस चाहत को सुलाए जाते हैं
सुनहली धुप से भरा आसमान सामने हैं
मन के बंद अँधेरे कमरे में सिमटे जाते हैं
चाहते हैं ज़िन्दगी में सागर सा विस्तार
हकीकत में कूप दादुर सा जिए जाते…
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Added by rajni chhabra on April 11, 2010 at 12:50pm —
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