तेरी कुएँ सी प्यास
तेरी अघोरी भूख
भिखारन, तू नित्य मेरे आँगन में आती
एक धमकी
एक चुनौती
तेरे आशीष में होती
घबराकर मैं तेरी तृष्णा पालती.
तू मेरी धर्मभीरूता को खूब पहचानती
और, मेरी सहिष्णुता का गलत मतलब निकालती.
‘’दे अपना हाथ तुझे उबार दूँ.’’
तूने तड़प कर दुहाई दी
अपने कुनबे की.
भिखारन! तेरे कितने नाज़
तेरे कुकुरमुत्ते से उगते परिवार
गोंद से चिपके तेरे रीति रिवाज़
छोड़ अब माँगने की परम्परा.
काम कर, कुछ काम कर
चौका बासन कपड़े लत्ते धो
स्वाभिमान की रोटी पका
पर तू माने कब मेरी बात
मैं तुझे सहने पर मज़बूर.
रोज़ के उपदेशों से तंग आकर
एक दिन तूने कहा-
‘’माना कि नदी के होते दो किनार हैं
तू मालकिन मैं भिखारिन
तू दे कर माँगती
मैं माँगकर देती.’’ इतना कह
चल दी वह दूसरी गली मुस्काती
अपनी ही कथन से मात खाती
ठगी सी मैं रह गयी खड़ी.
(मौलिक व अप्रकाशित रचना)
Comment
घरेलू कामों से फ़ुरसत पाकर
आती हूँ आंगन में
बटोरती हूँ कल के लिये
जीवन के कुछ सामान
दूर बज उठती हैं
पशुओं के गले की घंटी
टुन-टुन करती
खुरों की टापों में मिल जाती है
तुम्हारी परिचित आवाज़
बहुत सुन्दर रचना। सुन्दर चित्रण ग्राम्य जीवन प्रकृति और जिंदगी के प्रिय क्षण
भ्रमर
रात के पल लेते हैं हमसे. बहुत कुछ लेते हैं ! ग़ोया ज़िद्दी भिखारिन रात के अनगिन बच्चे, ये पल..! और हम लगातार देते चले जाते हैं. निरुपाय से.. प्रदाता बने !
इस मानसिक और शारीरिक छटपटाहट को अपनी भाषायी खूबसूरती से क्या ही आपने बाँधा है. आदरणीया !
आपकी यह कविता मुझे आपकी अबतक की सबसे अच्छी कविताओं में से लगी है. हर पहलू से समृद्ध और सार्थक. बारम्बार पठनीय.
सादर
आदरणीया:
एक शोध दर्शाती हुई अच्छी रचना प्रस्तुत की है आपने। कोई भी काम इतना सहज नहीं होता,जितना दूर से दीखता है। लेन-देन पर तो संसार टिका है,कोई मूर्त रूप से देता है...तो कोई अमूर्त।
सादर शुभकामनायें...
किसी को कुछ दे कर हमारा अहं भी झट सामने आ जाता है, और हम उनसे और भगवान से अपेक्षा करते हैं।
इस दार्शनिक रचना के लिए बधाई।
तू मालकिन मैं भिखारिन
तू दे कर माँगती
मैं माँगकर देती.’..........................बहुत गूढ़ दार्शनिक बात कही है आपकी इन पंक्तियों नें, जो सचमुच चिंतन को मजबूर करती है.
हार्दिक शुभकामनाएं
सभी मित्रों को हार्दिक आभार.....किसी को माँगने में सुख मिलता है तो किसीको देने में.......हम चाहे अपने अभिमान में लाख कह दें कि वह तो भीख माँगता है या माँगती है.......लेकिन क्या किसीसे कुछ माँगना आसान काम है..........?......बृजेश जी, आपकी सलाह मानकर मैंने इस रचना को पुनः संशोधन किया. बहुत सी बातों का फर्क मैं नहीं समझती थी. आपका मार्गदर्शन से मैं लाभांवित हुई. शुक्रिया.
तेरी कुएँ सी प्यास
तेरी अघोरी भूख,,,,,,,,,,,speech less ....................
‘’माना कि नदी के होते दो ...............................तू मालकिन मैं भिखारिन
तू दे कर माँगती
मैं माँगकर देती.’’ इतना कह
चल दी वह दूसरी गली मुस्काती
अपनी ही कथन से मात खाती
ठगी सी मैं रह गयी खड़ी. ....................sashakt rachna ........pravahmayi prastuti . ....
बहुत ही समर्थवान लेखनी है आपकी ...पढ़कर अच्छा लगा आपको ! सादर नमन
तेरे कुकुरमुत्ते से उगते परिवार
गोंद से चिपके तेरे रीति रिवाज़
छोड़ अब माँगने की परम्परा.....क्या कहने !
बहुत सुन्दर रचना! आपको हार्दिक बधाई!
इसे और कसा जा सकता है!
सादर!
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