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खेतों के दरके सीने पर बादल बनकर आ रामा

होठों के तपते मरुथल पर छागल बनकर आ रामा

 

बोली लगकर बिकता है अब आशीषों का रेशम भी

निर्वसना है श्रध्दा मेरी मलमल बनकर आ रामा

 

भक्ति युगों से दीवानी है राधा मीरा के जैसी

मन से मन मिल जाये अपना पागल बनकर आ रामा

 

दीप बुझे हैं आशाओं के रात घनेरी है गम की

प्राची से उजली किरनों का आँचल बनकर आ रामा

 

छप्पन भोगों के लालच में क्यूं पत्थर बन बैठा है

भूखों की रीती थाली में चावल बनकर आ रामा

 

सूख चुके हैं बरगद-पीपल मानवता ओ करुणा के

मन की बंजर धरती पर नव कोंपल बनकर आ रामा

 

चूता छप्पर सर पर कर्जा तिस पर बड़की का गौना

अंबार समस्याओं का है तू हल बनकर  आ रामा

 

धनवानों को झुकती दुनिया बलवानों से डरता जग

निर्धन का धन बनकर निर्बल का बल बनकर आ रामा

 

इस जीवन में तो ‘खुरशीद’ बड़ा खल कामी है राघव

पिछले जन्मों के सत्कर्मों का फल बनकर आ रामा

मौलिक व अप्रकाशित 

 

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on October 2, 2014 at 12:21pm

आदरणीय भाई खुर्शीद जी इस बेहतरीन गजल के लिए हार्दिक बधाई ।

Comment by विजय मिश्र on September 30, 2014 at 4:44pm
खुरसिद भाई , प्रशंसा के शब्द नहीं मिल रहे , विवेचना के भी शब्द नहीं मिल रहे , इतनी खूबसूरत लिखी आपने | दिल को हिलाकर रख दिया आपने |जितनी तारीफ करूँ कम |ऐसे अल्फ़ाज कलम की कालिख से नहीं ,दिल की कसक से निकलते हैं |हार्दिक आभार , आ.................. रामा |
Comment by harivallabh sharma on September 30, 2014 at 12:39pm

वाह...आ रामा...वाकई कितनी जरुरत हे ईश्वर ...कितना मार्मिक चित्रण करते अशआर ..

सूख चुके हैं बरगद-पीपल मानवता ओ करुणा के

मन की बंजर धरती पर नव कोंपल बनकर आ रामा

 

चूता छप्पर सर पर कर्जा तिस पर बड़की का गौना

अंबार समस्याओं का है तू हल बनकर  आ रामा....बहुत बहुत बधाई मर्म स्पर्शी...ग़ज़ल 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on September 29, 2014 at 11:00pm

गजब!! क्या खूब शे'र कहे है आपने. दिली बधाई आपको आदरणीय खुर्शीद साहब

Comment by Chhaya Shukla on September 29, 2014 at 12:50pm

सूख चुके हैं बरगद-पीपल मानवता ओ करुणा के

मन की बंजर धरती पर नव कोंपल बनकर आ रामा ... की व्व्व्वाह्ह्ह ! निकले आपकी गजल पढ़कर बधाई आपको शानदार गज़ल के लिए सादर 

Comment by Dr Ashutosh Mishra on September 29, 2014 at 11:30am

बोली लगकर बिकता है अब आशीषों का रेशम भी
निर्वसना है श्रध्दा मेरी मलमल बनकर आ रामा ".................बिलकुल सही कहा है 

इस शानदार ग़ज़ल पर आपको हार्दिक बधाई सदर 

Comment by ram shiromani pathak on September 29, 2014 at 9:52am
आहा आहा क्या कहने आदरणीय,बहुत ज़ोरदार प्रस्तुति।। हार्दिक बधाई आपको।। सादर
Comment by Dr. Vijai Shanker on September 28, 2014 at 9:48pm

" बोली लगकर बिकता है अब आशीषों का रेशम भी
निर्वसना है श्रध्दा मेरी मलमल बनकर आ रामा "
आदरणीय खुर्शीद जी, आपकी अन्य ग़ज़लों की तरह यह ग़ज़ल भी बहुत अच्छी बन पडी है है।
बहुत बहुत बधाई।


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Comment by rajesh kumari on September 28, 2014 at 7:00pm

बोली लगकर बिकता है अब आशीषों का रेशम भी

निर्वसना है श्रध्दा मेरी मलमल बनकर आ रामा-----कमाल का शेर 

छप्पन भोगों के लालच में क्यूं पत्थर बन बैठा है

भूखों की रीती थाली में चावल बनकर आ रामा---ला जबाब 

आ० खुर्शीद खैराबादी जी ,इस ग़ज़ल को पढ़कर मन मुग्ध हूँ ...जबरदस्त भाव क्या कहने ....इसके साथ बह्र भी लिख देते तो समझने में और आसानी होती और समीक्षा बेहतर होती ...खैर आप ढेरों दाद कबूलें सादर 

 

 

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