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गुरु गोविन्द (लघुकथा) - शिक्षक दिवस पर विशेष

"देख ली अपने चेले की करतूत?" वयोवृद्ध शायर के सामने एक पत्रिका को लगभग फेंकते हुए एक समकालीन ने कहा। 

"क्या हो गया भाई ? इतना भड़क क्यों रहे हो ?"

"इसमें अपने चेले का आलेख पढ़िए ज़रा।" 

"कैसा आलेख है?"

"आपकी ग़ज़लों में नुक्स निकाले हैं उसने इस पत्रिका में, आपकी ग़ज़लों में। मैं कहता था न कि मत सिखाओ ऐसे कृतघ्न लोगों को?" 

समकालीन बोले जा रहे थे, किन्तु वयोवृद्ध शायर बड़ी तल्लीनता से आलेख पढ़ने में व्यस्त थे। 

"देख लिया न? अब बताइए, क्या मिला आपको ऐसे लोगों पर दिन रात मेहनत करके ?"

"उम्र के आखरी पड़ाव में अपने शिष्य की इतनी प्रगति और ईमानदारी देखकर मुझे बहुत कुछ मिल गया भाई।" पत्रिका एक तरफ रखते हुए उनके चेहरे पर एक अनोखी चमक थी।  

"ऐसा क्या कुबेर का खज़ाना मिल गया आपको?"         

"आज मुझे अपना सच्चा उत्तराधिकारी मिल गया है।"

.

(मौलिक और अप्रकाशित)

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Comment by Archana Tripathi on September 6, 2015 at 12:21am
वाह ! नतमस्तक ऐसे महान गुरु के समक्ष और प्रणाम उनकी महान लेखनी को ।आदरणीय सर जी हम भी यही स्वप्न देखते हैं की एक दिन आपको भी हम पर इसी तरह गर्व हो।उत्कृष्ट लघुकथा ,शिक्षक दिवस और जन्माष्टमी की आपको हार्दिक बधाई।
Comment by Dr. Vijai Shanker on September 5, 2015 at 8:55pm
शिष्य में उत्तराधिकारी मिल जाए इससे बड़ी उपलब्धि और क्या होगी। बहुत गहरे अर्थों से पूर्ण लघु-कथा के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीय योगराज प्रभाकर जी ,
जन्माष्टमी एवं शिक्षक - दिवस दोनों की शुभकामनाएं , सादर ।
Comment by TEJ VEER SINGH on September 5, 2015 at 8:42pm

हार्दिक बधाई आदरणीय योगराज जी!शिक्षक दिवस की प्रासंगिकता को साकार कर दिया आपकी लघुकथा ने!आज के दिन ऐसी अदभुत रचना समस्त शिक्षकों को गौरवान्वित कर दिया!धन्य है आप की लेखनी!पुनः बधाई!


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on September 5, 2015 at 8:07pm

आदरणीय योगराजभीजी, प्रस्तुत लघुकथा गुरु के गुरुत्व की सान्द्रता को बखूबी प्रस्तुत कर रही है. ऐसी आत्मीयता और सदाशयता का भाव-प्रदर्शन एक ’गुरु’ ही कर सकता है. 

हार्दिक बधाई आदरणीय.

वैसे, गुरु के समकक्ष शिक्षक नहीं हो सकता. कारण, कि एक गुरु शिक्षक भी होता है, लेकिन हर शिक्षक गुरु नहीं होता. हो ही नहीं सकता.

आज ’शिक्षक दिवस’ है.

सादर


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on September 5, 2015 at 7:52pm

आज के विशिष्ट दिन यानी शिक्षक दिवस और कृष्ण जन्माष्टमी के संयोग को 'गुरु गोबिंद' शीर्षक के माध्यम से प्रस्तुत इस सशक्त लघुकथा द्वारा आपने सचमुच विशिष्ट बना दिया आदरणीय.

गुरु की महानता... अद्भुत तरह से व्यक्त हुई है... अपना ही प्रतिबिम्ब अपने शिष्य में मिलना अब चाहे गुरु के लेखन में ही त्रुटी क्यों न इंगित की गयी हो.... झूठे अभिमान के आवरण गुरु कहाँ ओढ़ता है...अव्वल गुरू ...कभी गुरुपद स्वीकार ही कहाँ करता है... उसकी लघुत्तम से लघुत्तम बने रहने की सादगी ही तो उसे गुरुता प्रदान करती है.... गोबिंद के समान गुणों का प्रतिरूप ऐसा गुरु साक्षात गोबिंद ही तो है.

इस असरदार सुन्दर लघुकथा के लिए धन्यवाद आदरणीय 

सादर.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on September 5, 2015 at 7:49pm

आदरणीय योगराज सर, गुरु होने का मतलब बताती इस सशक्त लघुकथा के लिए हार्दिक आभार. कथा का कथ्य और उसका मर्म  केवल एक गुरु के विशाल हृदय को ही नहीं, बल्कि उसके सर्जक के भी विशाल हृदय और वैचारिक गहनता की ओर भी संकेत कर रहा है. सादर 

Comment by pratibha pande on September 5, 2015 at 7:37pm

इतने विशाल ह्रदय वाले गुरु मिल जाएँ ,तो क्या ही बात है ,इस श्रेष्ठ रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय योगराज जी

Comment by Sushil Sarna on September 5, 2015 at 7:25pm

आदरणीय योगराज सर शिक्षक दिवस पर आपने बहुत ही सुंदर और सार्थक लघु कथा पोस्ट की है। कथा के आरम्भ और मध्य भाव को अचंभित करता उसका अंतिम भाग है। इस श्रेष्ठ प्रस्तुति पर दिल से दाद कबूल करें आदरणीय। 

Comment by Omprakash Kshatriya on September 5, 2015 at 5:42pm

आ योगराज जी. सब से पहले आप को शिक्षक दिवस की शुभकामनाएँ. फिर इस अच्छी लघुकथा के लिए बधाई. आप ने भी अपना उत्तराधिकारी चुन लिया होगा. आप जैसे गुरु को नमन .

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