कविता -01- माछेर झोल !
जब ओडिशा में
चलें ठंडी हवाएं
तट को छूने वाली
तब तुम आना मुझे याद
बंगाल में
मैं चख लूँगा
तुम्हारे हाथ की बनी
माछेर झोल !
कविता -०२- भात !
शहर की टाइल्स लगी चम चम चुहानी में
यूँ तो बनते हैं रोज़ ही कई कई पकवान
पर वो माटी के चूल्हे पर
लकड़ी की आग में बने दाल भात का स्वाद कहाँ उनमें
इस आंच में माँ !
गर्म मसाले हैं तेज़ और तीखे
नहीं है तो बस
तुम्हारी दुआओं की फूंक !
कविता -०३- कुटनी !
तुम्हे याद तो होंगी जाड़े की वो सुबहें
जब हम जाया करते थे
खेतों में साग खोटने
तुम्हारी ही पीसी हुई कुटनी के साथ
चने मटर की कोमल सुस्वादु पत्तियाँ
खोट खोट चुपके से देती तुम
सखियों से आँख बचाते
तुम्हारे प्रीत का वही स्वाद लिए
आज फिर आई है तुम्हारी याद
और मैं बंद आँखों से महसूस कर रहा हूँ
चने की कोमल पत्तियों का स्वाद
और तुम्हारे आँचल की छाँव
हाँ अब बड़ा हो गया हूँ मैं
पर बहुत सालता है अपने बचपन का
खुद से छिन जाना !!
- अभिनव अरुण
[05052012]
Comment
अभिनव जी, नमस्कार!
आपने आंचलिक शब्दों का प्रयोग के साथ माँ की ममता की चटनी बड़े ही सुन्दर ढंग से पड़ोसा है! बधाई!
kya misaal doon aapke kaavya bhav ki
yaad aagyi roti vo maan ke haath ki
thandi hava ka jhonka yon lahra gaya
bangal ki khadi se khalihaan ka maja aa gaya.
badhai, mahodaya ji.
पांडे जी
सादर, चूल्हे पर बनी माँ के हाथ की अधजली रोटियों और चटनी का स्वाद कोई पकवान भी नहीं दे सकता. सुन्दर रचना. बधाई.
स आंच में माँ !
गर्म मसाले हैं तेज़ और तीखे
नहीं है तो बस
तुम्हारी दुआओं की फूंक !
हाँ अब बड़ा हो गया हूँ मैं
पर बहुत सालता है अपने बचपन का
खुद से छिन जाना !!
श्री अभिनव भईया,
न जाने किन किन गलियों से हो आया आपकी कविताएँ पढ़ते पढ़ते...! बहुत ख़ूब!! :-)
अभिनव अरुण जी बहुत सुन्दर कोमल एहसास बचपन की याद दिलाती ,माछेर झोल भात ,कुटनी , व्यंजनों का सुन्दर स्वाद दिलाती हुई रचना.बहुत खूब.बधाई आपको .
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