वाक् -युद्ध
वाक् युद्ध याने शब्दों की लड़ाई। बिना शस्त्र या अस्त्र के लड़ा जाने वाला ऐसा युद्ध जिसमें कोई भी ख़ून खराबा नहीं होता और जिसमें किसी भी तरह के युद्ध क्षेत्र की आवश्यकता नहीं होती। इस वाक् युद्ध में कोई भी आपका शत्रु या मित्र आपके सामने हो सकता है।
वाक् युद्ध में किसी भी तरह के बचाव के लिए ढाल की जरुरत नहीं होती। शब्दों द्वारा लड़ी जाने वाली इस लड़ाई में जब स्वर की प्रत्यंचा पर शब्द रूपी बाण से किसी पर वार किया जाता है तो वह ख़ाली नहीं जाता। वैसे भी कहा जाता है की शब्द का वार कभी ख़ाली नहीं जाता- और यह शब्द की तीव्रता पर निभर्र करता है की वह कितना गहरा घाव करता है। शव्द रूपी बाण शरीर पर घाव नहीं करता और न ही यह घाव मानव काया पर दिखाई देता है। यह सीधे ह्रदय पर घाव करता है और जब इन्सान की आत्मा घायल होती है तो केवल आह निकलती है । यदि घायल इन्सान पलटवार करता है तो उससे केवल निराशा और मायूसी ही हाथ लगती है। शब्दों की इस जंग में केवल इतना ही होता कि इन्सान आपसी रिश्तों को हमेशा के लिए खो देता है. और फिर कितना भी कोशिश कर ले उसे पा नहीं सकता।
वक् युद्ध से दिल को जो चोट लगती है उसका मरहम केवल और केवल शब्द ही होते हैं। सांत्वना भरे शब्द इन्सान के दुखः को थोडा कम कर सकते हैं पर उसके निशान वक्त गुजर जाने के बाद भी कम हो जाते हैं पर रहते जरुर हैं।
इसीलिए कहा जाता है कि जब भी जुबान खोलो सोच समझकर खोलो। दांतों के बीच में लचीली जुबान इसीलिए कैद है क्योंकि वह जब भी लपक कर बाहर आएगी अपना असर छोड़ जाएगी.
"तुम जान ले लेते, कोई गम न होता,
पर तुमने जान ली मेरी, अपने लफ्ज़ों के वार से।" (वीणा )
यह रचना पूर्णतः मौलिक व अप्रकाशित है . (वीणा सेठी )
Comment
"तुम जान ले लेते, कोई गम न होता,
पर तुमने जान ली मेरी, अपने लफ्ज़ों के वार से।" (वीणा ) बहुत ही प्रभावकारी!
विचार प्रवाह सहज है.
बधाई व शुभकामनाएँ
दांतों के बीच में लचीली जुबान इसीलिए कैद है क्योंकि वह जब भी लपक कर बाहर आएगी अपना असर छोड़ जाएगी.
बहुत सुंदर लेख , एक चुप हज़ार बोल से अच्छी , मितभाषी होना , एक विशेष गुण है | सही बोलना देविये गुण है .
आभार .....
बहुत बढ़िया विचार आदरणीया-
बधाइयां-
चूके ना वाणी कभी, भेदे अपना लक्ष्य |
दुर्जन सज्जन चर अचर, चाहे भक्ष्याभक्ष्य |
चाहे भक्ष्याभक्ष्य, ढाल-वाणी बारूदी |
छोड़े जिभ्या बाण, ढाल क्या करके कूदी |
जहर बुझाए तीर, कलेजा ज्यों ज्यों हूके |
जाएँ रिश्ते टूट, किन्तु ना जिभ्या चूके || ,
शब्दों की इस जंग में केवल इतना ही होता कि इन्सान आपसी रिश्तों को हमेशा के लिए खो देता है. और फिर कितना भी कोशिश कर ले उसे पा नहीं सकता।//
बहुत सही,, और ऐसे रिश्ते किसी काम के नही,, उनको खत्म हो ही जाना चाहिए अगर वे आपसी सम्बोधन को आदर और सम्मान नही दे सकते है तो!!
आदरणीया वीणा जी नमस्कार , आपकी बात सही है इसीलिए एक जुबान को बत्तीस दातों का पहरा लगाया गया है ,लेकिन शायद ये भी सही है कि सबसे ज्यादा झगड़े यही करवाती है , क्षमा चाहते हुए कुछ लाइनों में कहना चाहूँगा !
मन मेरा अस्त्र है ,
जुबान मेरी शस्त्र है ,
युद्ध क्षेत्र उदगार है !
निराशा मेरा जन्म कराती ,
तब जाकर मैं जहर उगलती !
मैं तो हूँ असहाय माध्यम ,
इसीलिए स्त्री लिंग कहलाती !
आपको बधाई !
आ0 वीणा जी, सर्वकालिक, बहुत ही सुन्दर विचार। बधाई स्वीकारें। सादर,
Respected Veena Ji
I can understand the depth of your perception. The myth and effect of a word can not be defined !
My heartiest congratulation !!
Regards
Babban Jee
आदरणीया वीना जी:
आपने सब सही कहा है।
मेरी यह मान्यता रही है कि कोई कुछ भी कहे, स्वयं को, अहं को, पीछे रख कर दूसरे को समझने की कोशिश करूँ।
ऐसे में दुख यह भी है कि मानव कई बार door mat बन जाता है, और ‘और’ प्रहार का निशाना बन जाता है।
इस सुलेख के लिए बधाई।
सादर,
विजय निकोर
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