नोट:-
तरही मुशायरा अंक-100 में 87 ग़ज़लें पोस्ट हुईं,मेरी इस ग़ज़ल में जो क़वाफ़ी इस्तेमाल हुए हैं वो बिल्कुल नये हैं ।
पहले सिल पर घिसा गया है मुझे
फिर जबीं पर मला गया है मुझे
जाल हूँ इक सियासी लीडर का
नफ़रतों से बुना गया है मुझे
कोई बारूद की तरह देखो
सरहदों पर बिछा गया है मुझे
कहदो तक़दीर से बखेरे नहीं
करके वो एक जा गया है मुझे
क़त्ल करने के बाद ख़्वाबों का
देके वो ख़ूँबहा गया है मुझे
हक़ किसी और का नहीं उस पर
दिल वो करके हिबा गया है मुझे
दर्द बढ़ता ही जा रहा है,"समर"
कैसी देकर दवा गया है मुझे
"समर कबीर"
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
आदरनीय श्री समर साहब प्रणाम !!! वाक़ई नवीन और बेहतरीन क़वाफ़ी के परिवेश में सज्जित इस ख़ूबसूरत ग़ज़ल के लिए बहुत -बहुत बधाई /अभिनंदन !!!!
कोई बारूद की तरह देखो
सरहदों पर बिछा गया है मुझे वाह! वाह !! बहुत ख़ूब ! ग़ज़ब की देशभक्ति ।
शे'र दर शे'र दिली दाद के साथ मुबारकबाद कुबूल करें आली जनाब मोहतरम समर कबीर साहब ।
आली जनाब समर कबीर साहिब आदाब,
पहली, फिर दूसरी तीसरी, और अब ये चौथी ग़ज़ल सभी एक से बढ़ कर एक हैं
चारों ग़ज़लों के पुरख़ुलूस दाद और मुबारक बाद पैश करता हूं
आप हमैशा ही कुछ अलग कुछ ख़ास करने पर विश्वास रखते हैं जहाँ पहली ग़ज़ल में ओबीओ मंच को अपने मिसरे के पहले शब्दों में उकेरा वहीं इस ग़ज़ल में पूरे मुशायरे में इस्तेमाल ना किए गए काफ़ियों को लाने की भरपूर कोशिश का मुज़ाहिरा करते हुए कमाल की ग़ज़ल कही बहुत बहुत मुबारक बाद
वेसे काफ़िया कोई भी हो जब आप जेसे ग़ज़ल के माहेरीन उसे इस्तेमाल करते हैं तो उन क़वाफ़ियों की अज़मत बुलंद हो जाती है
इस बहतरीन ग़ज़ल के लिए एक बार फिर दिली मुबारक बाद
जनाब अफ़रोज़ साहिब,शुक्रिया ! याद दिलाने का शुक्रिया ।
जनाब इस ग़ज़ल के लिए मुबारकबाद आपको,
मतले में इस्तेमाल क़ाफ़िया "मला" मोरी ग़ज़ल "३" के मतले में मैंने इस्तेमाल किया है,,
आ. भाई समर जी, यह गजल तो कमाल की हुई है । शेर किस प्रकार गढ़े जाते हैं, उस सोच को पनपान के लिए मुझ जैसे तमाम सीखने वालों के लिए बेतरीन सबक भी है यह गजल । इसके लिए कोटि कोटि बधाई और धन्यवाद ।
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