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परिंदा तिफ़्ल हो उसके भी पर तो रहते हैं
ग़रीब हो भले ख़्वाबों में घर तो रहते हैं
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भले ही ज़िंदगी हासिल हुई अमीरों सी
मगर उन्हें भी कुछ अन्जाने डर तो रहते हैं
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हुआ है बंद कभी एक रास्ता मत डर
खुले कहीं न कहीं और दर तो रहते हैं
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मिला न एक सुबू गाँव में तमन्ना का
भले ही हसरतों के कूज़ा-गर तो रहते हैं
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सताए धूप मुसीबत की ,छाँव कर देंगे
हर एक घर में पुराने शजर तो रहते हैं
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भुलाना जान के ऐबों को अपने ठीक नहीं
कि ऐब दीदा-ए-अहल-ए-नज़र तो रहते हैं
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है अब भी मुल्क में जारी तिजारत-ए-पैकर
हवस के आज तलक सौदा-गर तो रहते हैं
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दिखाए ख़ौफ़ जो बच्चों को मान कर चलिए
तमाम उम्र कुछ उनके असर तो रहते हैं
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हमेशा फैसले के वक़्त ग़ौर कर लें 'तुरंत '
हयात भर ही कुछ अगर और मगर तो रहते हैं
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गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' बीकानेरी
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
भाई सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी ,खाकसार का कलाम पसन्द करने और हौसला आफजाई का बेहद शुक्रिया
आद0 गिरधर सिंह गहलोत जी सादर अभिवादन। पहले तो उम्दा ग़ज़ल के लिए बधाई। बहुत बढ़िया ग़ज़ल कही आपने। दूसरी बात आपकी ग़ज़ल के हवाले से जो सीखने को मिला वह भी हम जैसे के लिए बहुत लाभकारी है।
भाई TEJ VEER SINGH जी , रचना पर उपस्थित होकर उत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत आभार एवं नमन
भाई आशीष यादव जी , आपकी हौसला आफ़जाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया |
सबसे पहले तो बेहतरीन गजल पर बधाई। यह मंच एक पाठशाला की तरह लगता है। सच में बहुत कुछ सीखने को मिलता है।
हार्दिक बधाई आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' जी। बेहतरीन गज़ल।
है अब भी मुल्क में जारी तिजारत-ए-पैकर
हवस के आज तलक सौदा-गर तो रहते हैं
आदरणीय अमीरुद्दीन 'अमीर' साहेब , आदाब , आपके हौसला अफ़्ज़ा अल्फ़ाज़ के लिए शुक्रगुज़ार हूँ | मुझे भी अगर मगर साथ सही लग रहा था , लेकिन भसीन साहब के कहने से परिवर्तन कर दिया |
आदरणीय गिरधारी सिंह गहलोत जी, आदाब।
"भुलाना जान के ऐबों को अपने ठीक नहीं
कि ऐब दीदा-ए-अहल-ए-नज़र तो रहते हैं" लाजवाब शेअ'र है। आपकी ये बात सहीह है कि "दीदा-ए-अहल-ए-नज़र " में पहले से ही (में ) छुपा हुआ है। जनाब रवि भसीन जी ने कई बहतर सुझाव दिए हैं जिनमें से कई आपने अप्लाई भी किये हैं। शानदार ग़ज़ल हुई है, बधाई स्वीकार करें।
मक़ते के सानी मिसरे की तक़तीअ पर फिर से नज़र ए सानी कर लें, शायद "अगर और मगर" में "और" नहीं होगा। सादर।
आदरणीय रवि भसीन 'शाहिद' जी , आपकी सराहना एवं शानदार समीक्षा एवं इस्लाह के लिए ह्रदय से आभारी हूँ | मेरे विचार में "दीदा-ए-अहल-ए-नज़र " में पहले से ही (में ) छुपा हुआ है इसलिए अलग से लगाने की आवश्यकता नहीं है | नुक्ते कई बार यूनिकोड में सेलेक्ट होने से रह जाते हैं , इनके /उनके में ज्यादा यहाँ फ़र्क़ नहीं लग रहा , प्रायः पास के लिए इन और दूर के लिए उन प्रयोग होता है | यहाँ बच्चों के ख़ौफ़ को पास या दूर दोनों माना जा सकता है , अभी से "है अब " ज्यादा सही है | इसी तरह स्नेह बनायें रखें | सादर नमन |
आदरणीय Samar kabeer साहेब ,आदाब , आपकी हौसला आफ़जाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया |
सभी की ज़ीस्त में कुछ अगर मगर तो रहते हैं' ( कुछ + अगर = कुछ-गर ) सादर |
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