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snehi mahima ji. sadar
kavita ki tarah kahani. ab aage aur kya. badhai. tarakki karen.
Bahut sundar, ek eise varg ki kahani jisake liye jeevan ek sangharsh bhar hai, jeeta hai fir bhi mara hua sa.
महिमा जी, आपका स्पष्टिकरण सटीक किन्तु थोड़ा बड़ा लगा.
सही है, सभी के अपने-अपने धर्म हैं. रचनाकार का भी अपना धर्म है.
बहुत ही सुन्दर सार्थक कहानी महिमा जी बहुत बहुत बधाई आपको |
आदरणीय जवाहर सर व आदरणीय लक्ष्मण सर ,
आपका स्वागत है आपने खुल कर अपने विचार रखे..आपका ह्रदय से आभारी हूँ ,
मैं यहाँ किसको संदेश दूँ ? वो मजदुर तबका जिसे कभी -२ काम मिलता है और ज्यादातर बिचारा बेरोजगार ही होता है , जो अशिक्षित भी है , जिसके पास २ जून की रोटी भी महीने के ३० दिन मिलती भी है या नहीं ये भगवान् ही जाने . वो बेचारा तो अपना गम बस देशी से गीला कर रहा है , कोई बन्दुक उठाकर समाज के ठेकेदारों को गोली तो नहीं मार रहा है , किसको सन्देश दूँ जिनके पास काम नहीं है , खाना नहीं है , और ये सिलसिला उनकी मौत तक नहीं थमता , उन्हें आप क्या सन्देश देंगे ? उनकी पत्नियाँ अपने पति की बेचारगी और अपने जीवन की त्रासदी को अच्छी तरह से जानती है , वे स्वयं मजदूरी कर अपनी जरूरते पूरी करने में यकीं करती है न की वे पतियों को भाषण देती है , आदरणीय लक्ष्मण सर माफ़ कीजियेगा उनकी पत्नीं मध्यमवर्ग की नहीं है. जिसका पेट भरा होता है वही भाषण देता है ...
मैंने बस उनके जिंदगी में झाकने की कोशिश की है ...अगर हम या आप उनकी जगह होते तो शायद निराशा में अब तक आत्महत्या कर चुके होतें /
आशा है आप मेरी बातो का आशय समझेगे और अन्यथा नहीं लेंगे .. ..
महिमा जी, आपने तो अपने नायक को ८० रुपये थमा दिए शराब पीने के लिए! सरकार इसीलिये उन्हें ३२ रूपये ही देना चाहती है केवल एक वक्त की रोती के लिए तभी तो वो भूखा दुसरे दिन भी काम पर आयेगा!
सब कुछ ठीक है पर आपने उसे ठर्रा नहीं पीने दिया होता. सन्देश अच्छा नहीं गया मेरी समझ से - रचनाकार का धर्म रचनात्मक होना चाहिए.
महिमा श्री, आपकी कहानी समाज के विद्रुप चेहरे और विडंबनापूर्ण बर्ताव को पकड़ पाने में पूरी तरह सफल रही है. हृदय से बधाई स्वीकार करें.
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