मायूसियों ने आज फिर दस्तक दी
खयालो के बंद दरवाजो से निकल
मन के आँगन में बिखरने को
बेताब सी मायूसियाँ
लेकिन आस की एक लौ
जिससे रोशन है दिल की बस्तियाँ
मुस्कुरा के बोली बुझने ना देना मुझे
जीवन में आयेंगे कठोर थपेड़े
वक़्त की आंधियों में
हमने मिटती देखी हैं
इन थपेड़ो की गिरफ्त में कई हस्तियाँ
जिंदगी की उलझनों से बिफरती
भटकती सी राहो पर
डगमगाते कदमो से उठती-गिरती
बेबसी की लाचार सिसकियाँ
मन के सागर में उम्मीद के दीये सी
लहरों सी अठखेलियाँ करती
निरंतर बहती जाती है
आस की ये रोशन कश्तियाँ.........
Comment
किरणजी आपका स्वागत है आपके भाव व् जज्बातों को सलाम आपमें लिखने का हुनर है बाकी सौरभ जी जैसे प्रबुद्ध जन आपका मार्ग दर्शन करते रहेंगे इस मंच पर आपको बहुत कुछ सीखने को मिलेगा बस अपना धैर्य और द्रढ़ता को बनाए रखिये शुभकामनाएं
मायूसियाँ ने आज फिर ... यह कैसी पंक्ति है, किरणजी ? सही वाक्य -- मायूसियों ने आज.....
दिल की बस्तियां.... बस्तियां नहीं, सही शब्द बस्तियाँ है.
वक़्त की आंधियों तले, .... आंधियों को आँधियाँ किया जाय. आँधियों तले का क्या अर्थ है ?
हमने मिटती देखी है.. . देखी है के स्थान पर देखी हैं होना चाहिये यह आपको भी मालूम है.
उम्मीद के दिए सी.. . .... दिया और दीया में फ़र्क़ है. यहाँ ग़ज़ल के बह्र की समस्या भी नहीं कि दीये के दी का वज़्न गिराया
जाय. फिर दीया को दिया कहने की क्या विवशता है ?
लहरों सी अठखेलियाँ करती,
अविरल बहती जाती है
आस की ये रोशन सी कश्तियाँ....
इस वाक्यांश की मुलामियत पर मुग्ध हुआ जा सकता है. परन्तु, वाक्य का संयोजन कैसा हुआ है, इसे नज़रन्दाज़ किया जा सकता है क्या? अविरल बहना कश्तियों के लिये है अतः सही वाक्यांश बहती जाती हैं होगा. दूसरे, यहाँ रोशन सी कश्तियों से क्या अभिप्राय है ? रोशन सी का शाब्दिक अर्थ है जो रोशन तो लगे किन्तु वस्तुतः रोशन हो नहीं. यानि वाक्यांश का अर्थ हुआ -- आस की कस्तियाँ रोशन नहीं हैं, बल्कि आभासी मात्र हैं. क्या मैं सही हूँ, किरण जी ?
अब कृपया उपरोक्त सुझाव को संदर्भ लेकर रचना की पंक्तियों को देखें.
किरण आर्य जी, आपकी भावभरी पंक्तियों को देख कर मन मुग्ध होगया. और, प्रस्तुत रचना के परिप्रेक्ष्य में कहूँ तो आपकी संवेदनशील पंक्तियाँ भावनाओं से लबालब है. यह सत्य ही है, कि रचनाकार कोई हो यदि भावुक-शब्दों का संप्रेषण करता है तो उसकी पंक्तियाँ पाठकों को सुहाती ही हैं. लेकिन, किरण जी, रचना-प्रस्तुति भावुकता का संप्रेषण मात्र नहीं होता. होना भी नहीं चाहिये. प्रयुक्त उचित शब्द और उनका समझ भरा संयोजन ऐसे साधन हैं जो रचना को पठनीय ही नहीं आदरयोग्य बनाते हैं. ऐसे में रचना की भाषा के व्याकरण को परे नहीं हटाया जा सकता न ?
उपरोक्त संदर्भ के आलोक में हुआ किसी रचनाकार का प्रयास उसे भाव और विधा के मध्य संतुलन बनाना सिखाता है. यहीं अपने मंच ओबीओ की सार्थकता है.
हार्दिक शुभकामनाएँ.
आपका स्वागत है
आसा बंधाती सुन्दर रचना हेतु बधाई आदरणीया किरण जी ......
विशाल भाई मेरे बस आप सभी के स्नेह और मार्गदर्शन में सीख रही हूँ............:))
स्वागत है बंधुवर
लक्षमण प्रसाद जी और मित्र अम्बरीश जी नमस्कार और आपके स्नेह एवं मार्गदर्शन के हम सदा अभिलाषी है
अविरल बहती - आस की यह रोशन सी, यह कश्तियाँ
प्रिय किरणजी, इस भावपूर्ण रचना के लिए हार्दिक बधाई स्वीकारें | सस्नेह
एक सुन्दर एवं भावपूर्ण रचना.........एक अच्छा प्रयास है.......इसे जारी रखो किरण !!!!
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