ऐ मेरे प्रांगण के राजा
क्यूँ तुम ऐसे मौन खड़े
झंझावत जो सह जाते थे
जीवन के वो बड़े बड़े
क्यूँ तुम ऐसे मौन खड़े ?
बरसों से जो दो परिंदे
इस कोतर में रहते थे
दर्द अगर उनको होता
तेरे ही अश्रु बहते थे
उड़ गए वो तुझे छोड़ कर
अपनी धुन पर अड़े अड़े
क्यूँ तुम ऐसे मौन खड़े ?
इस जीवन की रीत यही है
सुर बिना संगीत यही है
उनको इक दिन जाना था
जीवन धर्म निभाना था
राजा जनक भी खड़े रह गए
आंसू नयन से झड़े झड़े
क्यूँ तुम ऐसे मौन खड़े ?
इकला ही है आना- जाना
चंद दिनों का है ठिकाना
जीवन के इस रंग मंच पर
आकर बस किरदार निभाना
कुम्भकार की माटी जैसे
बनते मिटते सभी घड़े
क्यूँ तुम ऐसे मौन खड़े ?
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Comment
इकला ही है आना- जाना
चंद दिनों का है ठिकाना
जीवन के इस रंग मंच पर
आकर बस किरदार निभाना
कुम्भकार की माटी जैसे
बनते मिटते सभी घड़े
क्यूँ तुम ऐसे मौन खड़े ?,अति सुंदर भाव आदरणीया राजेश जी ,हार्दिक धन्यवाद
प्रिय प्राची शुक्रिया
राजेश कुमार झा जी बहुत बहुत शुक्रिया आपको रचना पसंद आई
सुन्दर भाव आदरणीया राजेश कुमारी जी
बेहद सुंदर रचना है पढ़ते-पढ़ते पूरी रचना अंदर हौले से कब उतर जाती है पता ही नहीं चलता, सादर
आदरणीय लक्ष्मण लड़ीवाला जी बहुत बहुत आभार आपको पसंद आई रचना
हार्दिक आभार प्रिय संदीप शुभकामनायें
इस जीवन की रीत यही है,सुर बिना संगीत यही है
जीवन के इस रंग मंच पर, आकर बस किरदार निभाना
कुम्भकार की माटी जैसे, बनते मिटते सभी घड़े |
बहुत बढ़िया राजेश कुमारी जी आपने लिख दिया झट पट खड़े खड़े
जीवन के इस रंग मंच पर
आकर बस किरदार निभाना
कुम्भकार की माटी जैसे
बनते मिटते सभी घड़े
क्यूँ तुम ऐसे मौन खड़े ?
वाह वाह क्या बात है
बधाई हो आपको
आदरणीय नादिर खान जी बहुत बहुत शुक्रिया |
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