सप्त सिन्धु घट बह रहे, कर्ण पार स्वर सप्त.
व्योम वृहत निज व्याप्त है, सप्त वर्ण संतृप्त//१//
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तर्षण लब्धासक्ति का, करता उर संतप्त.
तर्कण कर तर्पण करें, वृथा फिरें अभिशप्त//२//
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मुद्रा, कीर्ति, स्वरुप भ्रम, क्षणिक करें मन तृप्त.
तप्त इष्टि परिशान्तिनी, शक्ति उर अनुज्ञप्त//३//
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डॉ. प्राची
Comment
आदरणीया प्राची जी
सादर
मैं तो उत्क्रष्ट ही कहूँगा
बधाई.
बहुत मार्मिक प्रस्तुति!!!!
DR.PRACHI APKI BISHUDH KATHIN HINDI KO PRANAM
.RACHNAO KO DETI HE AAP EK NAYA AYAM .
HINDI SHABDOSH KI AAP BHANDAR HE
.RAALLY AAP RACHNAKAR HE
डॉ.प्राची, आपकी विशिष्ट अनुभूतियाँ तथा विशिष्ट भाव सटीक शब्दों के साथ प्रस्तुत हो कालजयी हो गये हैं.
सप्त वर्ण संतृप्त कह कर आपने गूढ़ तथ्यों को सुन्दरता से साझा किया है. इस अभिनव प्रयास पर बहुत-बहुत बधाई.
एक बात : तप्तिप्सा क्या तप्त + ईप्सा ही है ? यानि, ज्वलंत चाहना या प्राप्ति की अदम्य ईच्छा ? या कुछ और.. आदरणीया ?
आदरणीय लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला जी, आपको रचना का शब्द चयन पसंद आया यह जान अच्छा लगा, उक्त पंक्ति (मुद्रा, कीर्ति, स्वरुप भ्रम, क्षणिक करें मन तृप्त.) से समभाव सरोकार रखने के लिए सादर आभार.
आदरणीया राजेश कुमारी जी, आपकी सराहना पा मन संतुष्ट हुआ,इन दोहों को सराह उत्साहवर्धन करने हेतु बहुत बहुत आभार. सादर.
अलंकार ,,,आभूषण से भूषित कविता लेकिन समझने में बहुत ही कठिन,,,
तर्षण लब्धासक्ति का, करता उर संतप्त.
तर्कण कर तर्पण करें, वृथा फिरें अभिशप्त
सुन्दर दोहे और बिलकुल शुद्ध हिंदी
विशिष्ट दोहों के लिए बहुत बधाई, किंतु जो दिखता है वह अर्थ नहीं है, मूल भाव साझा करने तो अधिक आनन्द आएगा, सादर
अद्भुत और सुंदर शब्दों में रचित दोहे बहुत अच्छे लगे । मन तृप्त हुआ ।
बहुत सही कहा है, मुद्रा, कीर्ति यश से मन क्षणिक तृप्त हो सकता है, पर
स्थायी रूप से नहीं । हार्दिक बधाई स्वीकारे ।
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