"छंद त्रिभंगी "
उठ नींद से गहरी , अर्जुन प्रहरी, नयना अपने, खोल ज़रा
पद साथ बढ़ा के , चाप चढ़ा के , इन्कलाब तो, बोल ज़रा
या छोड़ दिखावा, ये पहनावा, भगवा धारण, तुम कर लो
बन संत तजो सब, मौन रहो अब, मन का मारण,तुम कर लो
,,,,,,,दीप ............
Comment
आदरणीय गुरुदेव सौरभ सर जी सादर प्रणाम
सच कहा आपने गुरुवर
मैंने आपको पहचानने मैं कोई गलती नहीं की जैसे आपने मुझे
"कथ्य के विषय में तो यह प्रतीत हो रहा है कि आप शब्द के अनुसार भाव संतुलित कर रहे हैं."
आपका यही दृष्टिकोण साहित्य के प्रति आपकी विस्तृत आसमान सी सोच के बारे बताता है
हम बदलाव् की बात करते हैं लेकिन उसमे भी सीमाओं में रह कर
ताकि साहित्यिक संस्कृति बरकरार रहे
ये स्नेह और मार्गदर्शन इसी तरह बनाये रखिये गुरुदेव
आपका बहुत बहुत आभार
आदरणीय गणेश बागी सर जी सादर प्रणाम
इस प्रयास को आपकी सराहना मिली लेखन सफल हो गया
शिल्प के विषय में आदरणीय गुरुदेव ने जो कहा है उसे आत्मसात करता हूँ
ये स्नेह यूँ ही बनाये रखिये अनुज पर
प्रिय संदीप जी ,
त्रिभंगी छंद पर आपका यह छंद प्रयास बढ़िया लगा. प्रथम दो पंक्तियों का जोश सराहनीय है, इस हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें.
लेकिन, अंतिम पंक्ति में कथ्य के पीछे की वैचारिकता स्पष्ट नहीं लगती...जिसे पढ़ना चौकाने जैसा है.
सद कामनाएं.
प्रिय संदीप बहुत नेक प्रयास है छंद त्रिभंगी पर ये छंद बहुत ही मनमोहक है लेखकों को खींचता है अपनी तरफ़ इसी धुन में मैंने भी एक प्रयास किया था ,आपके छंद में दोनों बातें पूर्णतः स्पष्ट है कि जीवन का कौन सा रुप तुम स्वीकार करना चाहते हो आशावादी होकर या निराशा वादी होकर ,बहुत बढ़िया प्रयास है इस हेतु तुमको हार्दिक बधाई|
आपका छंद प्रयास बढिया हआ है. कथ्य तो अपनी जगह, शिल्प की दृष्टि से आपकी रचना सधी हुई है. इस हेतु आपको हृदय से बधाई.
कथ्य के विषय में तो यह प्रतीत हो रहा है कि आप शब्द के अनुसार भाव संतुलित कर रहे हैं. चूँकि, प्रस्तुत छंद रचना के लिहाज से रचनाकार का यह आरंभिक काल है अतः यह बात समझ में भी आती है. लेकिन यह मंच ही रचनाकारों के लिए अपनी प्रकृति के अनुसार ऐसा वातावरण उपलब्ध कराता है जहाँ रचना-प्रयास ’सीखने’ के क्रम में अपनी सार्थकता बनाये रखे. शुभेच्छाएँ.
गणेश भाई द्वारा उठाया गया प्रश्न छंद-तथ्य के लिहाज से न हो कर उच्चारण के अनुसार है. इंकलाब शब्द में कलाब को हम अलग से नहीं पढ़ सकते. ऐसा करना भी नहीं चाहिये. हिन्दी भाषा में रचनाओं में प्रयुक्त शब्द डिस्टिंक्ट हुआ करते हैं. लेकिन साथ ही यह भी सही है कि छंदों में शब्दों का प्रवाह में आना आवश्यक है.
भाई संदीपजी, इस त्रिभंगी छंद को हम सभी सदस्यों ने अपने मंच पर विविध रूपों में और कई-कई आयामों से देखा है. सभी आयामों की खूब चर्चा भी हुई है, आवश्यक तो कई बार अनावश्यक. हालाँकि, इससे एक अच्छी बात यह हुई है कि प्रस्तुत छंद के नियम-संबंधी कई-कई विन्दु पाठकों के सामने आ गये. एक बात अवश्य ग़ौर करने लायक है कि शास्त्रीय छंद ही नहीं कोई विधा या नियमावलि हो, व्यवहार करने वालों द्वारा निरंतर उपयोग होना ही उसका जीवन है. शास्त्रीय छंदों के नियम स्थायी हैं. लेकिन यह भी सत्य है कि उन्हीं नियमों के कई-कई क्षेपक भी हुआ करते हैं, जो कई बार अलिखित होते हैं तथा परंपराओं से व्यवहृत होते रहने के कारण मान्य व स्वीकार्य समझे जाते हैं. यह मूल नियमों की अवहेलना न हो कर उनके विविध रूप का प्रकाश में आना माना जाता है. इस रोचक विषय पर आचार्य सलिलजी से हुई अपनी बातचीत से यह बात सामने आयी है जिसका सार यही है कि छंद-रचनाएँ उन्हीं सीमाओं में हों जिनमें वे मान्य होती हैं. यह अवश्य है कि उनका रूप शुद्ध रखना रचनाकारों का ही काम है. सही भी है. लेकिन मान्यताओं और नये प्रयोगों को खारिज़ कर देने की निरंकुशता छंद प्रयासों को ही मार देगी. अतः, आज के व्यवहृत शब्दों और उनकी प्रकृति तथा सीमाओं के लिहाज से उनका प्रयोग होना रचनाओं और रचनाकारों दोनों के लिए समीचीन है.
सादर
//पद साथ बढ़ा के , चाप चढ़ा के , इन्कलाब तो, बोल ज़रा//
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संदीप भाई, बहुत ही सुन्दर छंद रचा है , शिल्प के बारे मे तो गुणी जन बतायेंगे, मैं अभी यह छंद नहीं सीख सका हूँ , मैं गाते हुए यह रचना पढ़ी, अंडरलाइन शब्द पर प्रवाह बाधित हो रहा है , मुझे लगा शायद यह जगण (१२१) के कारण है, जानकार जन कृपया प्रकाश डालेंगे | बधाई संदीप भाई |
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