|| मै बरगद का पेड ||
मै बरगद का पेड सयाना, चिरस्थिर खडा था आँगन मे ।
कितने मौसम आते जाते, देखे है मैने जीवन मे ।
सदीया बीती नदिया रीति, वो गाँवो का शहर बन जाना ।
अब मै डरा सहमा सा खडा हुआ हू, इन कंक्रीटो के वन मे
वो बडॆ प्यार से अम्मा बाबा का, मुझे धरा मे रोपना ।
वो खुद के बच्चो जैसा मेरा, लाड प्यार से पाल पोसना ।
वो पकड के मेरी बाहो को, मुन्ना मुनिया का झुला झुलना
वो चढ के मेरे कंधो पर, कटी फँसी पतंगो को लूटना ।
वो खेल खेल मे लडना झगडना, फिर कट्टी मिठ्ठी हो जाना।
वो आंख मिचोली पकडा पकडी, वो गुड्डा गुडियो का ब्याह रचाना ।
कितने बचपन महसूस किये है, मैने अपने अंतर मन मे
मै बरगद का पेड सयाना, चिरस्थिर खडा था आँगन मे ।
वो अम्मी का पीछे पीछे, लिये निवाला दौड लगाना ।
वो लल्ला का मेरे पीछे, आंखे बन्द करके छुप जाना
वो बापू का बाँध के मुझसे, लल्ला को थप्पड लगाना ।
वो लल्ला का मुझ से लिपट कर, आँखो से आसु बहाना ।
वो बहनो का मुझसे वीरा को, छुडाकर स्कूल ले जाना ।
वो दादी का सीने से लगा कर , लल्ला का वो लाड लडाना ।
वो मीठी सी प्यारी यादे, आज भी ताजा है मेरे जेहन मै ।
मै बरगद का पेड सयाना ,चिरस्थिर खडा हू आंगन मे ।
न जाने कितने मौसम देखे है मैने अपने जीवन मे ॥
हर शाम चबूतरे पर मेरे , बाबा का वो चौपाल लगाना ।
वो चिलम तम्बाखु की डिबिया, वो हुक्को का गुडगुडाना ।
वो हँसी ठिठोली की सर्दीली राते, वो कंडो का आलाब जलाना ।
कभी ज्ञान धरम की बाते होती, कभी विदुषको का जी बहलाना ।
कभी पंचो के सख्त फैसले , कभी बाबा का धीरे से समझाना ।
कभी छुटते रिश्तो का मिलना , कभी दहरियो का बट जाना ।
न जाने फिर कब लौट के आये, वो गुजरी यादो का जमाना ॥
अब बस थोडी सी जान बची है मेरे इस जर्जर तन मे ॥
मै बरगद का पेड सयाना ,चिरस्थिर खडा था आंगन मे ।
वो सुन शादी ब्याह की बातो को, मेरे पीछे मुनिया का शर्माना ।
वो मेरी ओट से दुल्हे का देखना , देख मुनिया का आंखे झुकाना ।
देख के उसकी नम आंखो को, बरबस मेरी आंखो का नम हो जाना ।
वो सजते तोरण द्वार ,वो मंगल गीतो का गाना ।
वो सजी धजी सी लाल चोले मे, नई दुल्हन का घर आना ।
लेने अमर सुहाग का अशीष, दुल्हन का मेरे चक्कर लगाना ।
बन ससुर दोनो हाथो से, उस पर अपना अशीष लुटाना ।
ये अंजाने अनकहे से रिश्ते , जो आन बसे थे मेरे मन मे ॥
मै बरगद का पेड सयाना ,चिरस्थिर खडा था आंगन मे ।
वो गुमसुम से फूलो के चेहरे, वो आधे खिल के मुर्झाना ।
वो सुबह अचानक चिडियो का, उठते ही चुप हो जाना ।
मन को व्याकुल कर रहा, लाली का वो करुण रँभाना ।
सन्नाटे को चीर रहा था , वो रह रह कर सिसकियो का आना ।
मानो सब कुछ लुट गया हो, सुन के अम्मा बाबा का जाना ।
अब कैसे गुजरेगा ये जीवन ,तन्हा अकेला सुनेपन मे ।
मै बरगद का पेड सयाना, चिरस्थिर खडा था आँगन मे ।
कितने मौसम आते जाते, देखे है मैने जीवन मे ।
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
सुन्दर
सही कहा कुंती जी . आप के अशीष के लिये बहुत बहुत धन्यवाद ...........
मर्मस्पर्शी रचना, जिस प्रकार से गाँवों का शहरीकरण हो रहा है , वह दिन अब दूर नहीं जब हर बच्चे पूछेंगे ,,,,,
what is badgad , papa ? ....और पापा को एंसीक्लोपिडीया का पन्ना पलटना पड़ेगा. सादर / कुंती.
श्री अशोक सर , श्री प्रदीप सर , रचना को मान देने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद , आप जैसे गुणी जनो का अशीष मिलता रहे यही कामना करता हू ।
आदरणीय नेमा ई सारा द्रश्य आँखों में घूम गया , बधाई सादर
आदरणीय एक छायादार और पूजनीय वृक्ष पर आपने सुन्दर रचना लिखी है. बहुत बहुत बधाई बड़े घने वृक्षों की इस धरा और समाज को बहुत आवश्यकता है. सादर.
मै बरगद का पेड सयाना, चिरस्थिर खडा था आँगन मे ।
कितने मौसम आते जाते, देखे है मैने जीवन मे । बहुत खूब काश आज की पीढ़ी आपकी रचना या यूँ कहूँ बरगद के पेड़ को, बरगद के पेड़ की छाया का सुखद अहसास करे | अब न तो घर में बरगद सामान बुजुर्ग के अस्तित्व को महत्त्व देते है, और न ही शहर में बरगद के पेड़ दिखाइ
देते है | एक सुन्दर रचना हार्दिक बधाई भाई श्री बसंत नेमा जी
आदरणीय, गनेश सर , ऊषा दीदी,श्री राजेश सर .. भावनाओ को मान देने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद ...........
आदरणीय बसंत नेमा जी, बरगद महज पेड़ ही नहीं होता बल्कि एक बुजुर्ग अभिभावक के मानिंद हर दुःख सुख का साथी होता है, बहुत ही सुन्दर रचना, बहुत बहुत बधाई इस प्रस्तुति पर ।
अति सुंदर रचना. बरगद के पेड़ को पूरे जीवन की, परिवार की, समाज की धुरी के रूप में पेश किया है आपने. बधाई स्वीकारें.
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