॥ एक अजन्मा दर्द ॥
माँ मुझको भी जीवन दे दे, मै भी जीना चाहती हू ।
सखी सहेली वीरा के संग, मै भी खेलना चाहती हू ।
माँ मुझसे ही तो कल है, फिर आज मेरा क्यु बोझल है ।
क्यु एक माँ ही माँ को मारे?, कल मै भी माँ बनना चाहती हू ।
जब तुम और बाबा थक जाओगी, अपने हाथो से मै सर दबाउंगी ।
अपने हाथो से न दबाओ गला , वो हाथ पकड के चलना चाहती हू ।
माँ मै तेरी ही तो छाया हू , फिर काहे धन पराया हू ।
छोड के बाबुल का आँगन , मै पिया घर जाना चाहती हू ।
न मागूंगी नये नये कपडॆ , न दिलाना गुडिया गुड्डॆ ।
न फुग्गे न घोडॆ हाथी , मै तो बाबा संग खेलना चाहती हू ।
चाहे सब कुछ मेरा, वीरा को देना । पर तुम मुझसे नाराज न होना ।
जो कर सकता है एक बेटा, मै वो सब करना चाहती हू ।
माँ जब तुम बूढी हो जाओगी , हरदम पास मुझे पाओगी ।
कभी ना फेरुंगी मुहँ मै तुम से , मै तेरी लाठी बनना चाहती हू ।
तेरा हर दुख दर्द मै बाँटुगी, तेरे लिये मै सब से लड लूंगी ।
झुकने न दुंगी सर बाबा का, मै भी सर उठाना चाहती हू ।
माँ क्यु तु मुझको रोक रही है?, क्या बेटी माँ पर बोझ रही है ?
माँ तुम क्यु इतना डरती हो ?, बस ये सवाल पुछना चाहती हू ।
"माँ का जबाब "
गर तु जिन्दा आ जायेगी, पर कैसे जिन्दा रह पायेगी ।
यहाँ चलती फिरती हर नजर, तुम पर आ कर रुक जायेगी ।
यहाँ जिस्म के भुखे भेडियो से, बिटिया तु कैसे लड पायेगी ।
कही दहेज की खातिर गुडिया ,तू जिन्दा जल जायेगी ।
सिर्फ तस्वीरो मे यहा, नारी की पूजा होती है
हर घडी हर पल सिर्फ, यहा नारी की परीक्षा होती है,
कही बच्चो के पेट की खातिर, हाट मे बिकने आती है ।
कभी सुहाग की लाली की खातिर , खुद हलाल हो जाती है
कही महलो के बन्द कमरो मे, वो घुट्घुट के रोती है ।
सुन लाडो ! यहाँ नारी का, जीवन एक श्राप है,
यहाँ नारी होकर नारी को पैदा करना पाप है ।
क्या तू अब भी इस दुनिया मे आना चाहती है ?।
मै तो तुझको जीवन देदू , क्या तु ऐसा जीना चाहती है ?।
" बेटी का जबाब "
माँ मेरा तु जीवन लेले, मै ऐसे नही जीना चाहती हू ।
मै दर्द अभी सह लूंगी पर, तुझको दर्द नही देना चाहती हू ।
कैसे बेटी माँ को ये सब सहने दे, माँ मुझे एक अजन्मा दर्द रहने दे।
माँ मुझे एक अजन्मा दर्द रहने दे, माँ मुझे एक अजन्मा दर्द रहने दे।
"मौलिक व अप्रकाशित"
Comment
आ0 प्राची दीदी ,वन्दना दीदी, कुंती दीदी, अभिव्यक्ति को पसन्द करने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद , आंगे समय का ध्यान रखेंगे ..
बसंत नेमा जी , आपने बहुत ही मर्मस्पर्शी माँ बेटी की प्रस्तुति दी है . ....क्या कहें बेबसी , मजबूरी या कुछ और , ....लेकिन नारी श्राप नहीं सृष्टि की सबसे बड़ी उपलब्धी है .....नारी को यह बात जान लेनी चाहिये ...और इस स्त्रीलिंग होने के श्राप से खूद लड़कर मुक्त होना चाहिये . वैसे यह जागरूकता शुरू हो चुकी है ......देर है पर अंधेर नहीं है./सादर / कुंती.
माँ मुझे अजन्मा दर्द रहने दे.... बहुत ही मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति.
यह सच की की आज हर माँ एक बेटी को जन्म देने से डरती है... क्योंकि वो बिटिया को कभी ऐसा सामाजिक माहौल या परवरिश नहीं देना चाहती जहां हर कदम, हर श्वाँस बिटिया के लिए एक नयी चुनौती हो..
उपरोक्त रचना में विषय वस्तु का विन्यास बहुत प्रभावित करना है ...किन्तु शिल्प गठन में यह अभिव्यक्ति अभी बहुत समय की मांग करती है.
सादर शुभकामनाएं
सुन्दर रचना आदरणीय बसंत नेमा जी, मगर यह नारियों को हतोत्साहित कर रही है. आज की परिस्थिति में नारी का मनोबल बढाने की आवश्यकता है.सादर.
रचना के हिशाब से आज की सच्चाई तो यही है ..
पर मेरा मानना है कि इस तरह नकारात्मक सोच को न पलने दें,
पहले खुद को बदलें उसके बाद हर बच्ची, लडकी, नारी, को पलने दें.
भावना दीदी .. सही कहा आप ने ये एक विडम्बना ही है की आज जननी खुद जन्म लेने के लिये डरती है रचना को मान सम्मान देने के लिये बहुत बहुत धन्यवाद ......
मै दर्द अभी सह लूंगी पर, तुझको दर्द नही देना चाहती हू । ऐसी बिटिया को कौन जन्म नहीं देना चाहेगा,सादर
यहाँ नारी होकर नारी को पैदा करना पाप है ।
..........SAMAY AUR NIYATI KI VIDAMBANAA HI HAI KI HAM AAJ BHI APNI SAMAAJ AAJ HI IS MAANSIKTAA SE BAAHAR NAHIN AA SAKAA HAI ....AUR NTYAPRATI KAHIN KOI DAAMINI ...KAHIN KO GUDIYAA ..IS DARD KO SAHNEE KO VIVASH HAIN ....HEY ISHWAR ...KUCHH SAAHAS DE ..KUCH NAITIKTAA DE IN APAAHIJ MAANSIKTAA SE GRASIT LOGON KO ..JO AISEY HGRADIT KAAM KARNEY SE PAHLE ..TANIK BHI NAHIN SOCHTEY ..............bahut aatm manthan ko vivash karti rachnaa ..hardik badhaai ...........!!
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