मित्रो इस बार नेट व्यवधान के कारन यह मुशायरा अंक में प्रस्तुत नहीं कर सकी थी , एक छोटा सा प्रयास किया था ...आपके समक्ष -- समीक्षा की अपेक्षा है;
चलो नज़ारे यहाँ आजकल के देखते है
लोग कितने अजब है चल के देखते है
गली गली में यहाँ आज पाप कितना फैला
खुदा के नाम पे ईमान छल के देखते है
ये लोग कितने गिरे है जो आबरू से खेले
झुकी हुई ये निगाहों को मल के देखते है
ये जात पात के मंजर तो कब जहाँ से मिटे
बनावटी ये जहाँ से निकल के देखते है
कलम ये कहे इक प्यार का जहाँ हो ,चलो
अभी कुछ और करिश्मे गजल के देखते है
---- शशि पुरवार
मौलिक और अप्रकाशित
Comment
शशी जी......बहुत सुंदर गजल........बधाई स्वीकार करें
शशी जी ..ओपन बुक्स ओं न लाइन से आप भी जुडी ..इसके लिए हार्दिक शुभकामनाएं....इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधायी..सादर
माननीय सौरभ जी आपका तहे दिल से आभार आपने जिस तरह गजल की कमियाँ कही है ,मुझे सिखने में और सुधार करने के लिए बहुत मदद मिली है ...... एक एक शेर की कमियां जिस तरह आपने समझाई है ...शब्द नहीं है मेरे पास , /// दिल से शुक्रिया , इस मार्गदर्शन से गजल को पूरा करती हूँ और भी शेर जोड़ने का मन था गजल पूर्ण करूंगी , कलम शब्द का वजन में चुक हो गयी ध्यान रखूंगी .....अपना स्नेह और मार्गदर्शन बनाये रखें .आभार
माननीय वीनस जी आपका दिल से शुक्रिया आपके शब्दों ने होसला बुलंद कर दिया , यह गजल समय अभाव के कारन अंतिम दिन रात ११ बजे शुरू की थी , और लम्बे समय बाद लिखा , आपकी प्रतिक्रिया ने प्रोत्साहित किया है , मै पुनः इस गजल को सुधार करूंगी , आपके मार्गदर्शन से ही इतनी गजल लिखने की शुरुआत हुई है , इसे पूर्ण करना ही है आभार स्नेह बनाये रखें
ये जात पात के मंजर तो कब जहाँ से मिटे
बनावटी ये जहाँ से निकल के देखते है
बढ़िया है
1212 1122 1212 112 या
1212 1122 1212 22
इन दो तरीकों से मिसरों को इस में बह्र में बाँधा जा सकता है. इस हिसाब से पूरी ग़ज़ल को होने देना था.
आपकी ग़ज़ल के हर शेर से गुजर कर देखते हैं --
चलो नज़ारे यहाँ आजकल के देखते है
ये लोग कितने बेईमान चल के देखते है
मतले का उला तो ग़ज़ब हुआ है. लेकिन सानी इस उला से सामंजस्य नहीं बना पा रहा है. सानी को ऐसे कहा जाय तो बात स्पष्ट होती दिखती है - कि लोग कितने अज़ब हैं ये चल के दखते हैं .. या इसी तरह का कुछ
गली गली में देखो आज पाप कितना फैला .
खुदा के नाम पे ये मान छल के देखते है
जो मात्रिक अक्षर किसी शब्द के बनाव का अहम हो उस अक्षर की मात्रा को गिराना उचित नहीं माना जाना चाहिये. देखा ऐसा ही शब्द है. इसके दे को गिराने से शब्द का अर्थ और प्रभाव दोनों समाप्त होता दिखता है, वह दिखा की तरह प्रतीत होता है.
गली गली में यहाँ पाप कितना फैला है किये जाने से बात थोड़ी स्पट होती प्रतीत होती है, साथ ही सँभलती हुई भी दिखती है.
सानी में मान छलना बहुत उचित प्रयोग प्रतीत नहीं हुआ.
ये कितने लोग गिरे है जो आबरू से खेले
झुकी हुई ये निगाहों को मल के देखते है
यह शेर कुछ और समय मांगता है. आपके अनुभवजन्य प्रयास से इसमें अभी और सुधार होना है. करके देखिये.
ये जात पात के मंजर तो कब जहाँ से मिटे
बनावटी ये जहाँ से निकल के देखते है
यह शेर बेहतर हुआ है. वैसे सानी पर थोड़ी और मशक्कत की दरकार है.
ये कलम तो कहे इक प्यार का जहाँ हो ,चलो
अभी कुछ और करिश्मे गजल के देखते है
उला बह्र से भाग रहा है, आदरणीया. कलम शब्द का वज़्न १२ होगा नकि २१ या १११. इस हिसाब से मिसरा उला को फिरसे देख जाइये.
आपकी कोशिश और प्रस्तुति केलिए अतिशय धन्यवाद, आदरणीया शशिजी. धीरे-धीरे आप सिधहस्त होती जाइयेगा. इसी मंच पर ग़ज़ल की कक्षा समूह में आदरणीय तिलकराज जी के या भाई वीनस के लेखों से आपको बहुत लाभ मिलेगा.
शुभेच्छाएँ
शशि पुरवार जी आपका हार्दिक स्वागत है ...
ग़ज़ल कहन के स्तर पर खूब दाद के काबिल है ,,, मेरी ओर से बधाई स्वीकारें ....
ये जात पात के मंजर तो कब जहाँ से मिटे
बनावटी ये जहाँ से निकल के देखते है
इस शेर के लिए विशेष बधाई स्वीकारें ..
उचित समझें तो बाकी सभी अशआर की लय पर पुनः गौर कर लीजिए... कहीं कहीं भटक गयी है हल्के हेर फेर से दुरुस्त हो कर मुकम्मल ग़ज़ल शानदार हो जायेगी
सादर शुभकामनाएं
kavi ji ,ram ji getika ji , arun ji ,jitendra ji bahut bahut dhanyavad aapka
abhinav ji bilkul aapse sahamt hoon ,abhi gajal likhna yahin se shuru kiya , aur yah to sirf 1 ghante me likhi ...samay ka abhav tha ,abhi aur sukhna hai mujhe . aapki salah sar aankho par :) shukriya
वर्तमान परिदृश्यों को बड़ी ही सहजता से गज़ल में पिरोया है. कहन की सादगी प्रशंसनीय है.
ये जात पात के मंजर तो कब जहाँ से मिटे
बनावटी ये जहाँ से निकल के देखते है
इस अश'आर पर ढेरों दाद स्वीकार कीजिये..........
आदरणीय शशि जी आपके इमानदार भाव और विचारों के प्रवाह की दिल से तारीफ करता हूँ । बाकी ओ बी ओ पे ही सीखा है और सीख रहा हूँ ..ग़ज़ल का अपना व्याकरण है और ओ बी ओ पे उजागर भी है श्री वीनस जी के आलेखों को समय दें शिल्प भी अवश्य सुधर जाएगा !!
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