क्यों चले आए शहर, बोलो
श्रमिक क्यों गाँव छोड़ा?
पालने की नेह डोरी,
को भुलाकर आ गए।
रेशमी ऋतुओं की लोरी,
को रुलाकर आ गए।
छान-छप्पर छोड़ आए,
गेह का दिल तोड़ आए,
सोच लो क्या पा लिया है,
और क्या सामान जोड़ा?
छोडकर पगडंडियाँ
पाषाण पथ अपना लिया।
गंध माटी भूलकर,
साँसों भरी दूषित हवा।
प्रीत सपनों से लगाकर,
पीठ अपनों को दिखाकर,
नूर जिन नयनों के थे, क्यों
नीर उनका ही निचोड़ा?
है उधर आँगन अकेला,
और तुम तन्हा इधर।
पूछती हर रहगुज़र है,
अब तुम्हें जाना किधर।
राज जिनसे मिला चोखा,
क्यों उन्हें ही दिया धोखा?
विष पिलाया विरह का,
वादों का अमृत घोल थोड़ा।
भूल बैठे बाग, अंबुआ
की झुकी वे डालियाँ।
राह तकते खेत, गेहूँ
की सुनहरी बालियाँ।
त्यागकर हल-बैल-बक्खर,
तोड़ते हो आज पत्थर,
सब्र करते तो समय का,
झेलते क्यों क्रूर कोड़ा?
मौलिक व अप्रकाशित
कल्पना रामानी
Comment
//गज़ल को बिलकुल अलग करने की कोशिश करूँगी। //
ना.. मैंने ऐसा एकदम नहीं कहा है कि नवगीत की पंक्तियाँ ग़ज़लों के बह्र पर आधारित न हों. बस इतना संवेदनशील और आग्रही हम अवश्य हों कि लघु के स्थान पर आसन्न अक्षर की मात्रा गिरानी न पड़े. भरसक ऐसी कोशिश हो.
कारक की विभक्तियों या है, हूँ, हो आदि को तो वर्णिक छंदों में भी छूट मिल जाता है.
मैं इस संदर्भ को और स्पष्ट करने के लिए इसी मंच के दो लिंक साझा कर रहा हूँ जहाँ कुछ ही दिनों पहले इसी विन्दु पर सार्थक चर्चाएँ हुई थीं.
http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:474997
http://openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:480122
सादर
आदरणीय सौरभ जी, आपकी टिप्पणी से ही मैंने गौर किया कि आप सही कह रहे हैं। लिखते समय आजकल गज़ल हावी होने लगती है। यह रचना किसी उदाहरण को देखकर नहीं लिखी, आजकल पढ़ना सीमित हो गया है और चर्चा तो किसी से कभी होती ही नहीं। एक आप ही हैं जिनसे सही दिशा निर्देश की उम्मीद रहती है। अगर इस तरह की रचनाएँ नवगीत विधा में कमतर मानी जाती हैं तो आगे आपको निराश नहीं होना पड़ेगा। गज़ल को बिलकुल अलग करने की कोशिश करूँगी। मैं लखनऊ दो बार आ चुकी हूँ लेकिन चर्चा में हिस्सा नहीं ले पाई (अक्षमता के कारण) नवगीत को लेख आदि पढ़कर ही समझने की कोशिश करती रही हूँ। आपने अपने व्यस्त क्षणों से इतना समय निकालकर मार्गदर्शन किया, आपका हृदय से आभार।
आदरणीया कल्पनाजी, आपकी रचनाधर्मिता प्रभावित तो करती ही है, अनुकरणीय भी होती है.
इसके लिए आपकी रचनाओं के हम आभारी भी हैं.
आदरणीया, आपने संभवतः पहली बार, ऐसा मेरा अनुमान है, बह्र से समर्थित पंक्तियों को नवगीत का हिस्सा बनाया है.
मुखड़ा और आधार पंक्तियाँ २१२२ २१२२ २१२२ २१२२ पर आधारित हैं. और अंतरा की पंक्तियाँ २१२२ २१२२ २१२२ २१२ पर
आधारित हैं.
यह उचित है कि प्रयासकर्म विविधताओं भरा हो. लेकिन सक्षमा कहूँगा कि आपने इस क्रम में मात्राओं को भरपूर गिराया है. यह नवगीत की विधा को लेकर बहुत अच्छा प्रयास नहीं कहा जा सकता. इस तरह का कोई प्रयास नवगीत को एक विधा के तौर पर उथला प्रचारित करता है. गिराये गये अक्षरों के कारण पंक्तियों की कुल मात्रा भी गड़बड़ाती हुई होती है.
आदरणीया, मुझे पूरा भान है कि ऐसी रचनाएँ (नवगीत) बहुतायत में उपलब्ध हैं और खुल कर रचे जा रहे हैं, जहाँ तुकान्तता, मात्राओं और अन्य तत्सम्बन्धी विधानों को लेकर तथाकथित प्रयोग चल रहे हैं.
लेकिन क्यों हम ऐसे किसी उदाहरण का अनुकरण करें जो किसी रचनाकार की अक्षमता के कारण व्यवहार में प्रचलित हैं ?
मेरी बात बहुत कष्टप्रद लग सकती है. इस तथ्य पर लखनऊ से आने के बाद से मेरी कई-कई वरिष्ठजनों से बात हुई है और यही तथ्य उभर कर सामने आया है कि नवगीत अपनी सार्थकता को अवश्य जीये. अन्यथा, विधा का दर्ज़ा पाने में इसके आगे पड़ी कई अड़चनों में से यह भी एक चट्टानवत अड़चन है.
आप एक समृद्ध और वरिष्ठ रचनाकार हैं इसी कारण इतना कुछ कह पाने का साहस कर पा रहा हूँ. आप तो मात्रिकता सटीक निर्वहन करती हैं ! अन्यथा इतने अधिकार से कहता.
यह प्रस्तुति भी मेरे अंतरमन को बहुत आकृष्ट नहीं कर पायी. इसके लिए क्षमा चाहता हूँ.
सार्थक प्रस्तुति की अदम्य प्रतीक्षा में .. .
सादर
आदरणीया कुंती जी, प्राची जी, राजेशकुमारी जी, गीतिका जी, वंदना जी, आदरणीय संजय जी, अजय जी, जितेंद्र जी, अविनाश जी; आप सबका प्रोत्साहित करती हुई सुंदर टिप्पणियों के लिए हार्दिक आभार
सादर
रेशमी ऋतुओं की लोरी,
को रुलाकर आ गए।...wah!
नूर जिन नयनों के थे, क्यों
नीर उनका ही निचोड़ा। umda
सब्र करते तो समय का,
झेलते क्यों क्रूर कोड़ा।sateek..
कल्पना रामानी ji...
है उधर आँगन अकेला,
तुम हो एकाकी इधर।
पूछती हर रहगुज़र है,
अब तुम्हें जाना किधर।...............बेहद सुंदर व् कोमल भाव से अंतर को अवसाद में घेर लेती पंक्तियाँ
जिनसे पाया राज चोखा,
दे दिया उनको ही धोखा,
विष पिलाया विरह का,
वादों का अमृत घोल थोड़ा।..............यहाँ इन्सान का स्वार्थ से पूर्ण, स्वभाव उजागर होता है
सर्वप्रथम आपकी लेखनी को नमन आदरणीया कल्पना जी, अद्भुत अनुपम रचना पर आपको हृदय से बधाई
है उधर आँगन अकेला,
तुम हो एकाकी इधर।
पूछती हर रहगुज़र है,
अब तुम्हें जाना किधर।
सार्थक प्रश्न उठाती रचना ....बहुत बहुत बधाई आदरणीय कल्पना मैम
क्यों चले आए शहर, बोलो
श्रमिक क्यों गाँव छोड़ा।
सुन्दर नवगीत............................
शहर की चकाचौंध ,आधुनिकता का आकर्षण जिसके वशीभूत हो युवा अपना गाँव छोड़ आते हैं उनके लिए एक सीख देता हुआ आपका ये नवगीत बहुत सुन्दर बहुत बहुत बधाई आदरणीय कल्पना जी
भावों की भूमि पर एक सार्थक प्रश्न चिन्ह छोड़ा है|
साधुवाद आ० कल्पना दी!
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