दिन उगे का तो पहर लगता है
यों अभी थोड़ी कसर, लगता है..
साँस लेना भी दूभर लगता है
क्या ये मौसम का असर लगता है
क्या हुआ साथ चलें या न चलें
पर सुगम होगा सफ़र, लगता है
घोर आपत्तियों के मौसम में
मौन तक आज मुखर लगता है
जोश अंदाज़ रवां दौर लिये
मकबरा शांत इधर लगता है
लोग दीवार उठायेंगे ही
छत बना यार अगर लगता है
जब सभी पास रहें हँस-मिल कर
घर तभी प्यार का घर लगता है
बह रही शांत नदी के मन में
एक उल्टी है लहर लगता है
सांत्वनाएँ जो मिलीं कुछ यों मिलीं
अब निवेदन से भी डर लगता है
*************
-सौरभ
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
लाजवाब ग़ज़ल और सार्थक परिचर्चा के लिए आभार, हार्दिक बधाई सर।
सांत्वनाएँ जो मिलीं कुछ यों मिलीं
अब निवेदन से भी डर लगता है //
बहुत सुन्दर ग़ज़ल के लिए बहुत बहुत बधाई आपको आदरणीय सौरभ जी । .... सादर
सभी सुधी पाठकों के प्रति सम्मान और कृतज्ञता के भाव साझा कर रहा हूँ जिन्होंने अपने अमूल्य समय में से कुछ पल इस ग़ज़ल को दिये. आप सबों की सदाशयता के लिए हार्दिक आभार.
एक तथ्य जिसकी तरफ़ सभी सम्मानित पाठकों का ध्यान चाहूँगा. इस ग़ज़ल के माध्यम से मैंने अपने ग़ज़ल सीखने के तौर को कुछ और विस्तृत करना चाहा था, एक प्रयोग करते हुए !
वस्तुतः ग़ज़लों में शब्दों के अक्षरो की मात्राओं के गिराने की परंपरा है. इस परंपरा में शब्दों का वास्तविक अर्थ न बदल जाये का होना बहुत मायने रखता है. यानि, इसके लिए भी एक मान्यता यह है कि मात्रा के गिरने से उस अक्षर का अर्थ न बदले. ध्यातव्य है कि किसी शब्द के पहले और अंतिम अक्षर की मात्राओं के गिराने की सुविधा मिलती है.
जैसे दीवाली - दिवाली, दीवाना - दिवाना आदि जैसे कई-कई शब्द हैं.
मैंने भी अपनी इस ग़ज़ल में इसी तौर पर दूभर शब्द का प्रयोग किया जिसके दू को बह्र के अनुरूप गिरा कर सुधी पाठकों से पढ़ने की अपेक्षा की थी.
आंचलिक भाषाओं में दूभर को भले दुभर कह दिया जाता हो लेकिन हिन्दी में यह शब्द दूभर ही है. यह मुझे अच्छी तरह से ज्ञात है. मैंने दूभर के दुभर रूप को इस ग़ज़ल के हुस्नेमतला में जान-बूझ कर इस्तमाल किया.
यहाँ ओबीओ पर तो कोई चर्चा ही नहीं हुई जबकि यह एक सीखने-सिखाने का मंच है, लेकिन यह स्पष्ट करूँ कि नशिस्तों और गोष्ठियों में मेरे द्वारा इस ग़ज़ल को पढ़े जाने के बाद इस पर अवश्य आवश्यक चर्चा हुई और बेहतर चर्चा हुई. इस ग़ज़ल की कहन पर भरपूर वाहवाहियाँ मिलीं, लेकिन साथ ही कतिपय श्रोताओं ने इस पर मुझे स्पष्ट तौर पर कहा कि दूभर शब्द को जैसे भी बाँधा गया हो, यह आपका यानि मेरा प्रयोग ही है.
आदरणीय एहतराम इस्लाम साहब ने तो साफ़ तौर पर कहा कि यह शेर वाकई ज़ानदार है लेकिन इसमें दूभर को आप दुभर की तरह इस्तमाल कर रहे हैं तो यह शुरुआती दौर है इसकी घोषणा अवश्य कर दीजिये. एक बहुत पते की बात उन्होंने कही, वो ये कि, क़ायदे से तो शब्दों की मात्राओं को तो गिराना ही नहीं चाहिये. अलबत्ता, है, हो, हूँ, था, थी या ऐसे कई शब्द या सर्वनाम या क्रियापद के शब्द जिनके गिराने से वाक्य बनाने में सहूलियत होती है, उनको गिराना समझ में आता है, ऐसी परिपाटी का प्रचलन हुआ ही इसीलिए कि कहन को प्रस्तुत करने में आसानी हो. इसी तर्ज़ पर तो बहुवचन आदि के लिए अवश्यक मात्राएँ गिरायी जाती हैं. अन्यथा शब्दों के अक्षर बार-बार गिराने से जितना हो सके बचना चाहिये भले उस तरह का प्रयोग किसी ने क्यों न किया हो.
यह वाकई बड़ी पते की बात कही उन्होंने.
अर्द्धवार्षिक पत्रिका ’ग़ज़लकार’ के सम्पादक दीपक रुहानीजी ने भी यही कहा कि शब्दों के ऐसे प्रयोग स्पष्ट हो कर कह दिये जाने चाहिये. यदि कोई इसे स्वीकार कर ले तो आपके माध्यम से एक उदाहरण बन जायेगा. कई और श्रोताओं ने भी अपने-अपने विचार साझा किये. इसी क्रम में वीनसजी का यह कहना था कि ऐसा प्रयोग चूँकि मैं कर रहा हूँ तो मुझे इसकी ज़िम्मेदारी लेनी पड़ेगी.
एक बात मैं अवश्य साझा कर दूँ कि शब्दों की महत्ता और उनकी अक्षरी के प्रति मैं कितना आग्रही हूँ यह इस मंच के सुधी पाठक भली-भाँति परिचित हैं.
ऐसे प्रयोगों से एक ख़तरा तो अवश्य यह रहता है कि आगे चल कर शब्दो की अक्षरी बदल जाये या विकृत हो जाये. इस लिहाज़ से पहले से भी कई शब्द हैं जिनमें से एक दो का ऊपर मैंने ज़िक़्र भी किया है, इसके साथ तिरा, मिरा आदि जैसे पचासों शब्द हैं जो शब्दों की अक्षरियों का खुल्लम्खुल्ला मज़ाक उड़ाते दीखते हैं. लेकिन ऐसे प्रयोग चूँकि बड़े शायरों ने कर रखे हैं तो ’पाप उनके सर मेरे नहीं’ कह-कह कर बाद के गज़लकार ऐसे शब्दों का ’पाया-मुण्डा’ खाते रहते हैं.
इसके परिप्रेक्ष्य में उर्दू साहित्य एक अज़ीब तरीका अपनाता है जो अन्य भाषाओं के लिहाज से अलहदा है. उर्दू शब्दकोशों में शब्द अपने उच्चारण और विन्यास (हिज्जे पढ़ें) के लिए किसी पुराने अथवा मान्यता प्राप्त शाइर द्वारा अपनाये गये लिहाज का मुखापेक्षी हुआ करता है. ऐसा अन्य भाषाओं में शायद ही होता है.
ऐसा कुछ करना उन शाइरों की महत्ता बताता है या शब्द-विज्ञान के तौर पर इस भाषा की कमी, इस बहस में मैं नहीं पड़ना चाहूँगा, लेकिन जो है सो है.
उपरोक्त आशय के परिप्रेक्ष्य में मुझे यह भी कहना है कि मात्राओं के गिराने के मान्यता प्राप्त नियम नहीं मिले, बस सारा कुछ अपनायी गयी परंपराओं पर ही आश्रित है. यही कारण है कि शब्दों के उच्चारणीय प्रयोग पूरी तरह से प्रयुक्तकर्ताओं पर निर्भर करते हैं. यह किसी नये रचनाकारों वह भी उन रचनाकारों जो कि उर्दू के लिहाज से वाकिफ़ नहीं है, परेशानी खड़ी कर देता है.
मैं अब इस तथ्य पर एक बात अवश्य कहूँगा, कि शब्दों की गरिमा के प्रति मैं स्वयं भी कोई खिलवाड़ नहीं चाहूँगा. लेकिन ग़ज़ल में प्रयुक्त शब्दों की मात्राओं के गिराने की प्रथा में कोई ठोस या तथ्यपरक नियम का न होना पहले भी कई परेशानियाँ प्रस्तुत करता रहा है तो अब भी प्रस्तुत कर रहा है. अज़ीब सी स्थिति पहले भी बनती थी, अज़ीब सी स्थिति अब भी बन रही है.
मैं इस ग़ज़ल के हुस्नेमतला को अपने पास रखता हूँ.
फिलहाल, ऐसे शब्दों का अनुकरण न किया जाय. कारण कि, ऐसे में आगे चल कर शब्दों की अक्षरियों में विकृति के आने की संभावना बलवती हो जाती है.
सादर
घोर आपत्तियों के मौसम में
मौन तक आज मुखर लगता है वाह !!
जब सभी पास रहें हँस-मिल कर
घर तभी प्यार का घर लगता है वाह, बेहतरीन !!
बेहद सुन्दर ग़ज़ल, आदरणीय |
हार्दिक बधाइयाँ |
लोग दीवार उठायेंगे ही
छत बना यार अगर लगता है..........behatreen .............
घोर आपत्तियों के मौसम में
मौन तक आज मुखर लगता है ...wah!
लोग दीवार उठायेंगे ही
छत बना यार अगर लगता है ..sahi aashanka...
बह रही शांत नदी के मन में
एक उल्टी है लहर लगता है ....bahut umda
सांत्वनाएँ जो मिलीं कुछ यों मिलीं
अब निवेदन से भी डर लगता है ....sateek निवेदन karati शानदार gazal आदरणीय सौरभ सर
घोर आपत्तियों के मौसम में
मौन तक आज मुखर लगता है
बह रही शांत नदी के मन में
एक उल्टी है लहर लगता है
सांत्वनाएँ जो मिलीं कुछ यों मिलीं
अब निवेदन से भी डर लगता है ..... वाह क्या कहने है ... शानदार आदरणीय सौरभ सर .. हार्दिक बधाईयाँ , सादर
सभी अश'आर खूबसूरत और मुकम्मिल हुए हैं, मगर मन्दरजा शेअर का लब्बो-लुबाब एकदम मुनफ़रिद है और यह बहुत कुछ कहता है:
//लोग दीवार उठायेंगे ही
छत बना यार अगर लगता है //
पूरी की पूरी ग़ज़ल दिल को सुकून पहुँचाने वाली है. दिल से बधाई प्रेषित है आदरणीय सौरभ भाई जी.
आदरणीय सौरभ भाई सदर अभिनन्दन , यूँ तो सम्पूर्ण ग़ज़ल आनंद दाई है पर यह शेर अत्यधिक मन को भा गया . हार्दिक धन्यवाद .
जब सभी पास रहें हँस-मिल कर
घर तभी प्यार का घर लगता है
वाह, वाह बहुत ही आनंद दाई गजल! उत्साह और सकारात्मकता से भरपूर
आदरणीय सौरभ जी, बहुत बहुत बधाई आपको-
ये शेर विशेष पसंद आए।
जब सभी पास रहें हँस-मिल कर
घर तभी प्यार का घर लगता है
बह रही शांत नदी के मन में
एक उल्टी है लहर लगता है
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