अहसासों को
प्रज्ञ तुला पर कब तक तोलूँ
चुप रह जाऊँ
या अन्तः स्वर मुखरित बोलूँ
जटिल बहुत है
सत्य निरखना-
नयन झरोखा रूढ़ि मढ़ा है,
यद्यपि भावों की भाषा में
स्वर आवृति को खूब पढ़ा है
प्रति-ध्वनियों के
गुंजन पर इतराती डोलूँ
प्राण पगा स्वर
स्वप्न धुरी पर
नित्य जहाँ अनुभाव प्रखर है
क्षणभंगुरता - सत्य टीसता
सम्मोहन की ठाँव, मगर है
भाव भूमि पर
आदि-अंत के तार टटोलूँ
श्वास-श्वास में
कण-कण जीवन
जी लेने की रख अभिलाषा,
अंतर्मन ही छद्म जिया यदि
जीवन की फिर क्या परिभाषा
निज संचय में
मणिक-मणिक सम सत्य पिरो लूँ
(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
नवगीत सन्निहित भाव कथ्यु आपको पसंद आए..आपकी मूल्यवान सराहना के लिए हृदय से आभारी हूँ आ० नीरज कुमार 'नीर'जी
नवगीत के भावों को समझने के लिए और सराह कर अनुमोदित करने के लिए धन्यवाद आ० सावित्री राठौर जी
सामजिक वर्जनाओं एवं रूढ़ियों , पाखंडों से आवृत मनोदशा में सत्य निरखना वाकई बहुत मुश्किल है
जटिल बहुत है
सत्य निरखना-
नयन झरोखा रूढ़ि मढ़ा है,
यद्यपि भावों की भाषा में
स्वर आवृति को खूब पढ़ा है.....
और ये :
श्वास-श्वास में
कण-कण जीवन
जी लेने की रख अभिलाषा,
अंतर्मन ही छद्म जिया यदि
जीवन की फिर क्या परिभाषा
निज संचय में
मणिक-मणिक सम सत्य पिरो लूँ
प्रति-ध्वनियों के
गुंजन पर इतराती डोलूँ... सुन्दर सन्देश एवं जीवन भरती पंक्तियाँ ... बहुत सुन्दर एवं उत्कृष्ट रचना .. आपको हार्दिक बधाई आदरणीया ..
श्वास-श्वास में
कण-कण जीवन
जी लेने की रख अभिलाषा,
अंतर्मन ही छद्म जिया यदि
जीवन की फिर क्या परिभाषा
निज संचय में
मणिक-मणिक सम सत्य पिरो लूँ
प्राची जी अत्यंत सुन्दर और मार्मिक भाव.………वास्तव में यदि जीवन को क्षण-क्षण जीने की अदम्य इच्छा हो और जिस रूप में हम उसे जीना चाहते हैं,वह उससे भिन्न हो,तो मन को बहुत कष्ट होता है,उस पर यदि हम उस भिन्न जीवन को जीने के लिए विवश हों तो हृदय गहरी पीड़ा में डूब जाता है और संसार को दिखाने के लिए हम अपने मन पर झूठ का आवरण चढ़ाकर जीवन जीते हैं,पर वास्तव में यह जीवन नहीं है। इस विवशता को शब्दों में पिरोने हेतु बधाई।
नवगीत के भाव पक्ष और शब्द चयन पर आपके सराहनात्मक अनुमोदन के लिए सादर धन्यवाद आ० शिज्जू शकूर जी
आदरणीया डॉ प्राची जी बहुत खूबसूरत भावों, अप्रतिम शब्दों से सुसज्जित इस रचना के लिये बहुत बहुत बधाई आपको
रचना पर आपकी पाठकीय उपस्थिति और अनुमोदन के लिए धन्यवाद आ० सविता मिश्रा जी
आदरणीय गिरिराज भंडारी जी
रचनाओं पर गंभीरता से आपकी संवेदनशील पाठकीय प्रतिक्रियाएं.... उन कईयों के लिए उदाहरण सदृश होनी चाहियें जो सिर्फ चलताऊ टिप्पणियाँ भर कर जैसे किसी परम्परा का निर्वहन मात्र करते हैं.
वस्तुतः पाठकीय प्रतिक्रियाएं ही किसी रचनाकार के लिए अपने सम्प्रेषण की सफलता और सार्थकता को जान पाने का माध्यम होती हैं, इसलिए एक संवेदनशील पाठक को पूरी ईमानदारी से अपनी प्रतिक्रया देनी चाहिए और यदि वो पाठक रचनाकार भी हो तब तो ये ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है.
इस नवगीत के भावार्थ को छूने का आपने बहुत सफल प्रयास किया है...जो मेरे लिए आत्मीय संतोष का विषय है.. साथ ही इस अभिव्यक्ति में मुख्यतः उन सत्यों को स्वीकारने की बात है जिसे हमारा अंतर्मन महसूस करता है,किन्तु हम जानते बूझते कई कई कारणों से उन्हें नकारते चले जाते हैं..शायद दो ज़िंदगियाँ जीते हैं हम एक साथ; एक मन ही मन जिसे हम चाह कर भी स्वीकार नहीं करते और दूसरी प्राकट्य रूप में बाहर.
रचना पर समय देने और कथ्य भाव को सराहने के लिए सादर धन्यवाद
बहुत सुन्दर
आदरणीया प्राची जी , एक इमानदार मन मे उठने वाले सत्य -असत्य , अच्छा - बुरा के द्वंद को बहुत सुन्दर शब्द दिया है आपने । असत्य के मायाजाल से उब कर, सत्य की ओर जाने की इच्छा बलवती होती लग रही है ॥ आपको इस सोचने को विवश करती रचना के लिये हार्दिक बधाइयाँ ॥ आदरणीया, अगर निहित भावों को समझने मे गलती किया हूँ तो ज़रूर समझाइयेगा ॥ सादर ॥
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