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पिता

गर बेटियाँ है  तुम्हारा  स्वाभिमान

फिर क्यों

समाज के  विद्रूपताओं से  भयभीत होकर

रोकते  हो  उसकी हर  उड़ान

बनाने क्यों नहीं देते  उसकी

स्वयं की साहसी  पहचान

असुरक्षा के  डर से

देना  चाहते  हो उसको

किसी का साथ

खर्च  कर लाखोँ  लाते हो

छान बिन कर एक जोड़ी  अदद हाथ

जो  बनेगा  तुम्हारी बेटी का आजीवन रक्षक

पर क्या  होता  है सही ये फैसला

हर बार

वक्त के साथ देख  बेटियों की  दुर्दशा

क्या नहीं होते स्वयं  परेशान

पिता

बस  एक  विनती है  हमारी

चिंता और  व्यग्रता से  बाहर निकल

दो निर्णय का  अधिकार

भरो  उनमे  साहस

दो उनकी  उड़ान को दिशा

राह में मत रोको , मत  टोको

बनो मार्गदर्शक

जब तक  नहीं बनेगी  साहसी

तब तक कभी भी ,

कंही भी नहीं रहेगी  सुरक्षित

समाज  में  बेटियाँ

मौलिक एवं अप्रकाशित

 

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Comment by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on August 27, 2014 at 6:55pm

पिता

बस  एक  विनती है  हमारी

चिंता और  व्यग्रता से  बाहर निकल

दो निर्णय का  अधिकार

भरो  उनमे  साहस

दो उनकी  उड़ान को दिशा

महिमा जी आज के इस युग में बड़े धोखे सच में हो जाते है वैसे माँ पिता तो हर सम्भव अपनी लाड़ली की ख़ुशी चाहता है अच्छी रचना और विनय
आभार
भ्रमर ५

Comment by vijay nikore on August 3, 2014 at 3:55pm

//

पिता

बस  एक  विनती है  हमारी

चिंता और  व्यग्रता से  बाहर निकल

दो निर्णय का  अधिकार

भरो  उनमे  साहस

दो उनकी  उड़ान को दिशा//

हर बेटी अपने पिता से यह कह सके, यह आशा है ..... और हर पिता अपनी बेटी की कराह को सुन सके ।

कितनी बेटिओं के मन की बात कह दी आपने। बधाई, आदरणीया महिमा जी।


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 6, 2014 at 9:40pm

ऐसी बेटियाँ !! ..  हर पिता को नाज़ होगा..

शुभ-शुभ


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Dr.Prachi Singh on June 25, 2014 at 3:59pm

प्रिय महिमा जी,

बहुत समय बाद आपकी कोइ प्रस्तुति देखी...

बेटियों के मन की आवाज़ को बहुत सशक्त स्वर मिला है आपकी इस कविता में.... 

वैसे तो आज के समय में उचित वर तलाशने के मापदंडों में काफी फ्लेक्सीबिलिटी आयी है...फिर भी बिटिया को सुरक्षित हाथों में सौंपना तो सबसे बड़ा और पहला ही मापदंड होता है... लेकिन क्या बिटिया उन हाथों में उतनी सुरक्षित होती है... क्या नहीं रौंदे जाते बेटियों के छोटे छोटे सपने...

सही कहा आपने 

...

दो निर्णय का  अधिकार

भरो  उनमे  साहस

दो उनकी  उड़ान को दिशा

.....

जब तक  नहीं बनेगी  साहसी

तब तक कभी भी ,

कंही भी नहीं रहेगी  सुरक्षित

समाज  में  बेटियाँ

............................अपने ही अदृश्य डरों के खोल में घुटती सी ज़िंदगी जीती ही बिटिया...ज़रुरत है उसके मन में निडरता को स्थायी करने की ..तभी वो हर जगह सुरक्षित रह सकेगी. अपनी ज़िंदगी जी सकेगी ..अन्यथा वो तो सब कुछ आरोपित ही जीती है.

इस प्रस्तुति के लिए बधाई 

लेकिन, कुछ टंकण त्रुटियाँ और व्याकरणिक त्रुटियाँ रह गयी हैं....उन्हें अवश्य ही सुधार लीजिये.आपकी रचनाओं से अब सुगढ़ता की अपेक्षा भी रहती है.

सस्नेह 

Comment by वेदिका on June 19, 2014 at 3:22am
आँखे खोल देने वाली कविता प्रस्तुत हुयी है। इस वैचारिकता को कई कई बार पढ़ा। //निर्णय का अधिकार //माँगती आपकी रचना एक सामाजिक मांग है।
सच है जब बेटी पिता के घर ही व्यक्त नही है तो किसी पराये घर में क्या नियति है उसकी। क्यों हर समय हर जगह उनको सुरक्षा के लिए तीसरे को नियुक्त किया जाना है, क्यूँ नही खुद लडकी में ही आत्मवालाम्बं विकसित होने दिया जाता है, और क्यों उसको केवल //एक जोड़ी अदद हाथ// में सौंप दिया जाता है, जिनका मापदंड आर्थिकता है। क्यों सामान वैचारिकता को दरकिनार कर दिया जाता है? और "एडजेस्ट कर लेगी" जैसे जुमले के प्रयोग कर सामाजिक विद्रूपताओं के जन्म होते है?
समस्त प्रश्न चिन्ह खड़े करती सजग रचना पर अनंत साधुवाद प्रिय महिमा जी!
Comment by रमेश कुमार चौहान on June 18, 2014 at 9:59pm

एक बेट की सबला बनने की कामना पिता से करना उचित है, समय की भी यही मांग है, सार्थक प्रस्तुति के लिये बधाई

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 17, 2014 at 7:27pm
बहुत सुन्दर महिमा श्री , " दो निर्णय का अधिकार " . यह आपकी कविता का ही सार नहीं है बल्कि हमारी अपने बच्चों को दी गयी सम्पूर्ण शिक्षा , हमारे उनकें बीच पनपा और विकसित पूरा विशवास है . बात छोटी सी नहीं एक गंभीर विडम्बना को दर्शाती है कि इतनी ऊंची ऊंची शिक्षा दे कर भी हम अपने बच्चों को जीवन साथी चुनने का अधिकार नहीं दे पाते हैं , शायद पुरानी परंपराएं ही हैं जो हमारा अहं बन कर हमारे और हमारे बच्चों के बीच में आ जाती हैं .
एक बात और है , जीवन शैली में बहुत कुछ बदल चुका है , बहुत कुछ और तेजी से बदल रहा है , कुनबाई जीवन विलुप्त हो चूका है , संयुक्त पारवारिक जीवन भी बहुत कम रह गया है परिवार का स्वरूप न्यूक्लीयर होता जा रहा है जिसमें ऐसे जीवन साथी की जरुरत है जिससे हर स्तर पर पूरा पूरा तालमेल बैठ सके . वर्किंग गर्ल्स की भी यही समस्याएं हैं . सबसे बड़ी बात अपने बच्चों पर हम नहीं विशवास करेंगें तो और लोग कैसे करेंगें .
मूल बात, जीवन उन्हें जीना है उनकें जीवन के अहम फैसले हम किस अधिकार से करते हैं , और क्यों करते हैं , जीवन तो हर एक को एक ही मिलता है , क्यों न उन्हें पूरा जी लेने दें , यह हमारा उन पर उपकार नहीं है , यह उनका और हर किसी का मूल अधिकार है. हाँ उन्हें पूरी सलाह और सहयोग अवश्य दें उनकें निर्णयों पर दृष्टि अवश्य रखें , गलतियां भी हो जाती हैं ,अगर उनका निर्णय उचित या अनुकूल लगता है तो उसे सहर्ष स्वीकार करें , सिर्फ इसलिए बाधा न बनें कि हमारे यहां ऐसा कभी हुआ ही नहीं . माता- पिता तो हम जीवन पर्यन्त रहते ही हैं , उससे कहाँ मुक्त हैं , हाँ उनकी निजता का सम्मान करते रहें , देंखें जीवन और अच्छा रहेगा.
इस सुन्दर कविता के लिए एक बार पुनः बधाई के साथ ,
सादर.
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 17, 2014 at 1:25pm

महिमा जी

यह समस्या मध्यम वर्ग की है i उच्च  वर्ग तो वर्जनाओ को लात  मार  चूका है  i अभिभावक की चिंता आजादी समेटने की नहीं होती  i उसकी चिंता होती है युवा जोश और उमंग के साथ सामाजिक अनुभवहीनता  i मध्यम वर्ग में इतना दम ही कहा है  कि वह रिस्क ले i समाज तो फिर उसका ही जीना दूभर कर देता है i

शायद यह आपकी पहली कविता मेरे दृष्टि पथ पर आयी है i कविता में प्रभाव अवश्य है, रिद्म है  --आपका भविष्य उज्जवल हो i

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