हे भाग्य विधात्री, जन सुख दात्री, मातु भारती, वंदन है ।
मां माटी तोरी, सौंधी भोरी, रज कण माथे, चंदन है ।।
गिरि हिम आच्छादित, करते प्रमुदित, मुकुट मणी सा, सोहत है ।
धरा मनोहारी, मातु तुम्हारी, हरि हर को भी, मोहत है।।
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मौलिक अप्रकाशित
Comment
आ० रमेश कुमार चौहान जी
त्रिभंगी छंद पर बहुत सुन्दर प्रयास हुआ है..
हार्दिक बधाई इस जटिल छंद पर कलम चलाने के लिए.
त्रिभंगी पर अच्छी चर्चा हुई है.
तुम्हारी को पँचकल ही मानें. यह शास्त्र सम्मत है
शुभ-शुभ
......... बहुत खूब आदरणीय भाई रमेश जी हार्दिक बधाई स्वीकारें ।
आदरणीया राजेश दी,श्रीवास्तव जी एवं लड़ी वालाजी आप सभी इस उत्साह वर्धन के लिये हार्दिक आभार ।
आदरणीय श्रीवास्तवजी छंद सम कला के मात्रिक गण होने से मात्रिक मैत्री का नियम पालनीय है। । प्रथम चरण में 2,4,4 के दस मात्राएं होनी चाहिये किन्तु कुछ उदाहरण में त्रिकल त्रिकल के योग से षटकल पश्चात चैकल लिया गया जिस आधार पर ये प्रयोग करने का दुस्साहस कर बैठा । वास्तव में हम अभ्यासी को 24,4 4,4 4,4 4,2 का ही पालन करना चाहिये । सादार
आ० डॉ गोपाल जी की बात का समर्थन करते हुए - त्रिभंगी का ये विधान देखिये ----त्रिभंगी के प्रत्येक चरण में 10-8-8-6 पर यति (विराम) आवश्यक है। मात्रा बाँट 8 चौकल अर्थात 8 बार चार-चार मात्रा के शब्द प्रावधानित हैं जिन्हें 2+4+4, 4+4, 4+4, 4+2 के अनुसार विभाजित किया जाता है। इस तरह 2 + 7x 4 + 2 = 32 सभी पदों में होती है।
आदरणीय रमेश जी
आपकी रचना पर महनीया राजेश कुमारी जी से बात हुयी i मै अपनी आपत्ति इस बिंदु के साथ वापस लेता हूँ कि त्रिभंगी का कोई भी चरण शायद त्रिकल से आरम्भ करने की परंपरा नहीं है i इसे द्विकल या चौकल से ही प्रारम्भ किया जाना परंपरागत है i
मनोहारी त्रिभंगी छंद प्रयास के लिए हार्दिक बधाई
रमेश जी
आपका सुन्दर प्रयास है i अंतिम पंक्ति में दो बाते है - पहला यह कि धरा मनोहारी में जो पहला चौकल है, धराम यह जगण है और त्रिभंगी के किसी भी चौकल में जगण का निषेध है i इसीलिये यहाँ लय भी बाधित हुआ है i दूसरी बात 'मातु तुम्हारी ' में आठ केस्थान पर नौ माँत्राए है i प्रसन्नता हा कि आप छंद रचना कर रहे है i यह रचना कर्म को मांजता है i
वाह ...बहुत सुन्दर त्रिभंगी छंद ,हार्दिक बधाई आपको रमेश जी
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