ये रिमझिम सावन, अति मन भावन, करते पावन, रज कण को ।
हर मन को हरती, अपनी धरती, प्रमुदित करती, जन जन को ।
है कलकल करती, नदियां बहती, झर झर झरते, अब झरने ।
सब ताल तलैया, डूबे भैया, लोग लगे हैं, अब डरने ।।
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मौलिक अप्रकाशित
Comment
सुन्दर प्रयास जैसा की आ० सौरभ जी ने सुझाव दिया उसको दुरस्त कर लेंगे तो बहुत सुन्दर त्रिभंगी छंद हो जाएगा
ये रिमझिम सावन, अति मन भावन, करता पावन, रज कण को
सब ताल तलैया, डूबे भैया,---करके देखिये
आपको बहुत- बहुत बधाई
//आपके निर्देश/सुझााव का मुझे सदैव प्रतिक्षा रहता है //
आपके निर्देश/सुझावों की मुझे सदैव प्रतीक्षा रहती है ।
शुभेच्छाएँ आदरणीय
सभी महानुभवों का सादर आभार
आदरणीय सौरभजी आपके निर्देश/सुझााव का मुझे सदैव प्रतिक्षा रहता है । आपके अबतक प्राप्त सुझााओं के बल पर अब तक अभ्यास कर पा रहा हू, जो प्रश्न आप खडे किये वाजीब है, संशोधन का प्रयास करूंगा आपका हार्दिक अभिनंदन आभर ।
पाठकों की हार्दिक बधाइयों से आप्लावित यह रचना अब मेरे जैसों से कोई प्रश्न कैसे या क्यों स्वीकार करे ?
अन्यथा मैं पूछता -
१. सावन पुल्लिंग की तरह व्यवहृत होता है. किन्तु, पहले पद में इसकी क्रिया स्त्रीलिंग है.
२. नदियाँ बहुवचन है संज्ञा है. तीसरे पद में ’करती’ या ’बहती’ उपयोग किया गया है.
३. जब इतना बढिया वातावरण है, सभी ’नाच’ रहे हैं तो ’लोग’ ’डरने’ क्यों लगेंगे ? इसके लिए कोई कारण नहीं बताया गया है.
आदरणीय रमेशजी, आपकी प्रस्तुति वस्तुतः एक अभ्यास प्रस्तुति है. अतएव, अपेक्षित है कि रचनाओं को प्रस्तुत करने में गंभीरता बरती जाय. अलबत्ता, मात्रिकता संयोजन निर्दोषहुआ है.
सादर
मन भावन सुन्दर रचना प्रस्तुति के लिए बधाई श्री रमेश चौहान जी
वाह वाह ! , रमेश भाई ,पढ़ के मज़ा आगया , शिल्प का ज्ञान तो नही है , लेकिन आनन्द आया ! बधाइयाँ ।
आप सभी का सादर आभार
सुन्दर प्रस्तुति.............हार्दिक बधाई
सुन्दर प्रस्तुति आदरणीय। । हार्दिक बधाई आपको
वाह वाह क्या कहने!
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