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काम से थककर चूर पत्नी ने कमर पीड़ा से कराहते हुए दर्द भरे स्वर में कहा - ‘हाय रा s sम !’

बिस्तर पर लेटे –लेटे पति ने पत्नी की व्यथा सुनी, बुरा सा मुंह बनाया और जोर से आह भरी – ‘हाय सी s sता !'

 

 

[अप्रकाशित व् मौलिक]

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 7, 2014 at 8:37pm

Respected sir

I am really very sorry and beg your pardon . Please . Your comments always inspire me . Thank you .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 7, 2014 at 8:29pm

आदरनी सौरभ जी

आपके विचारो का स्वागत i मै आलोचना को सदैव सकारात्मक लेता हूँ i मुझे खुशी होती है कि आप जैसे विद्वान मेरी रचना पर इतना समय देकर मार्ग प्रशस्त करते है i  सादर i

Comment by Dr. Vijai Shanker on July 7, 2014 at 7:10pm
How come that my comment on this post , dated 30th June 2014 went unnoticed , Sir .
Regards .

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on July 7, 2014 at 6:48pm

मैं पाठकधर्मिता का सम्मान करता हूँ.
जिन्हें यह लघुकथा पसंद आयी और जिन्होंने इस प्रस्तुति में बहुत कुछ ढूँढ निकाला उनको मेरी हार्दिक बधाई.


जिन सदस्यों ने इस लघुकथा के विन्यास पर अपने सुझाव दिये उनके धैर्य और उनकी आत्मीयता के प्रति मुझे गर्व है. आजकी तारीख में किसी को सुझाव देना भले ही कितना ही सटीक क्यों न हो, खतरे से खाली नहीं है. प्रतिष्ठा तक दाँव पर होती है. लेकिन समदर्शी जन सुझाव और सलाह साझा करते हैं. सटीक सार्थक और स्पष्ट सुझाव लेखन प्रयास का अहम हिस्सा हैं. इस ओट में उन सुझावों को नहीं गिनना चाहिये जो किसी उद्येश्य विशेष से ठोंके जाते हैं और उनका लक्ष्य नुक्ताचीनी के बहाने किसी की अवमानना हुआ करता है.
मैं अपने मंतव्य साझा कर पाया.

सादर धन्यवाद.

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 3, 2014 at 6:58pm

आशुतोष जी

आपकी टिप्पणी ने मुझे उर्ज्वास्वित किया श्रीमन i  सादर i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 3, 2014 at 6:56pm

रवि जी

आपके परामर्श का सादर स्वागत है i  वैसे आदरनीय  बागी जी पहले ही मुझे आगाह कर चुके थे i मै स्वयं इसे पोस्ट करने में अधिक आश्वस्त नहीं था  i पर मैंने रिस्क लिया और मुझे मार्ग दर्शन प्राप्त हुआ i पर आगे मै अवश्य सतर्क रहूँगा i सादर i

Comment by Dr Ashutosh Mishra on July 3, 2014 at 3:36pm
आदरणीय गोपाल सर ..इस रचना के माध्यम से रिश्तों आती दूरी और किसी के कष्टों के प्रति संवेदनशीलता में होते ह्रास को सुंदर ढंग से दर्शाया गया है .मेरी तरफ से हार्दिक बधाई सादर
Comment by Ravi Prabhakar on July 3, 2014 at 3:15pm

आदरणीय गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी,
हर घटना को लघुकथा में नहीं ढाला जा सकता। हरेक बात, कहा गया वाक्य, टोटका, वार्तालाप, चुटुकला, व्यंग्य, हाजर जवाबी लघुकथा नहीं हो सकती। यह कलात्मकता या सृजनात्मकता ही है जो इन रूपों को लघुकथा में ढाल सकती है। लघुकथा को संक्षिप्त से संक्षिप्त शब्दों में कहने का अर्थ यह भी नहीं लिया जाना चाहिए ये बिल्कुल सपाट कथन बन जाए। प्रयास जारी रखें, सादर ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 2, 2014 at 2:27pm

लडीवाला जी /आपका बहुत आभार i

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 2, 2014 at 2:26pm

वेदिका जी / आपने सच कहा -नारी की भौतिक पीडा को यूँ हंसी में टालना मनुष्य की  फितरत है /  पर नारी के ऐसे व्यंग वह स्वयं  सहन नहीं करेंगे i

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