प्रेम दीपक
बंधन में मत बाँध सखी
उन भावों को
जो नित-नित
मानसपट पर चित्रित होते हैं –
स्वप्नों के छंद में बाँध सखी
उन छंदों को
जो पलकों पर पुलकित, अधरों पर बिम्बित होते हैं.
नयनों से ढुलके जो दो-चार बूँद सखी
अपने हिय के पत्र-पुष्प पर
टल-मल-टल
उनमें अपनी किरणों को पिरो देना
मेरी पीड़ा के होमकुण्ड में गंगाजल.
जब आग बुझे, कुछ राख उड़े
तम छाए सखी,
उस नीरव हाहाकार को तुम कुचल देना
स्वप्निल रातों में विधु का जब अट्टहास उठे
अपने हृदय के सघन वाष्प से ढँक देना.
अंतिम प्रहर में पल्लव-पुट पर आँसू बरसे
समाधि पर मेरे तुम धीरे से आना
जो दीप नहीं जला सकी हो जीवन में,
प्रिये, एक बार
बस एक बार,
समाधि पर मेरी यूँ ही जला देना.
.
(मौलिक तथा अप्रकाशित)
Comment
अंतिम प्रहर में पल्लव-पुट पर आँसू बरसे
समाधि पर मेरे तुम धीरे से आना
जो दीप नहीं जला सकी हो जीवन में,
प्रिये, एक बार
बस एक बार,
समाधि पर मेरी यूँ ही जला देना.-----दिल से आह निकल जाती है इन मर्मस्पर्शी पंक्तियों को पढ़कर ,कितनी भावपूर्ण रचना लिखी है आपने आ० शरदिंदु जी ,बहुत- बहुत बधाई
खूबसूरत रचना
प्रेम भाव का अद्भुत चित्रण हुआ है आपकी समृद्ध लेखनी के माध्यम से | ऐसा प्रेम भाव जो पलकों पर पुलकित और अधरों
पर बिम्बित हो | वाह ! बहुत खूब | इस खूबसूरत रचना के लिए आपको अतिशय बधाईयाँ शरदिंदु मुकर्जी | सादर
चिरकाल से.. मानवीय संवेदना की शुद्धतम अभिव्यक्ति नैसर्गिक निवेदन सुसभ्य-सुसंस्कृत रहा नहीं कभी. वह तो निश्छल गंधर्वभाव के वशीभूत आत्मोसर्ग की उच्च भावना से अनुप्राणित होता है. वह न तो शब्दों के संस्कार से अनुशासित होना चाहता है, न भाषा-व्याकरण की निरंकुशता से आतंकित ही होना चाहता है.
निवेदन का एक मात्र हेतु रही है, संप्रेषणजन्य अभिक्रिया !
निर्द्वन्द्व पूजाभाव को जीता हुई संप्रेषणजन्य अभिक्रिया ! शब्दाकार में निबद्ध किन्तु निःशब्दता को जीती हुई संप्रेषणजन्य अभिक्रिया !
आदरणीय शरदिन्दुजी, आपकी इस सरस प्रस्तुति को मैं उपरोक्त भावदशा के आलोक में देख पा रहा हूँ. प्रेमाभास का ऐसा अनगढ़, इतना दिव्य स्वरूप मनोदशा के अति उच्चतर कोशों में जीती वृत्तियों को ही सुलभ हो पाता है.
अंत कभी निर्णायक नहीं बल्कि ऊर्जस्वी समाधि का पर्याय है. उन विह्वल क्षणों में पारस्परिक साहचर्य का परिचायक संयमित भावदीप की प्रत्याशा कोई ’संतुलित चित्त’ योगी ही कर सकता है.
आप प्रस्तुतियों में इस भावदशा को जिलाये रखें, आदरणीय.
बहुत दिनों बाद तो कत्तई नहीं कहूँगा, बल्कि पहली बार... आपकी किसी रचना ने भावदशा के उन क्षणों को साझा किया है जहाँ प्रस्तुतियों के शब्द ही कविता बन जाते हैं. और, ऐसे शब्दों का समुच्चय एक खण्डकाव्य !
अपनी इस प्रस्तुति से आपने इस मंच को समृद्ध किया है आदरणीय.
सादर आभार
मेरी पीड़ा के होमकुण्ड में गंगाजल.
जब आग बुझे, कुछ राख उड़े
तम छाए सखी,
उस नीरव हाहाकार को तुम कुचल देना
स्वप्निल रातों में विधु का जब अट्टहास उठे
अपने हृदय के सघन वाष्प से ढँक देना.
अंतिम प्रहर में पल्लव-पुट पर आँसू बरसे
समाधि पर मेरे तुम धीरे से आना
जो दीप नहीं जला सकी हो जीवन में,
प्रिये, एक बार
बस एक बार,
समाधि पर मेरी यूँ ही जला देना.//////////////////अनुपम पंक्तियाँ आदरणीय बहुत बहुत बधाई आपको। । सादर
समाधि पर मेरे तुम धीरे से आना
जो दीप नहीं जला सकी हो जीवन में,
प्रिये, एक बार
बस एक बार,
समाधि पर मेरी यूँ ही जला देना............बहुत मर्मस्पर्शी भाव, कितनी प्यास है..इन पंक्तियों के अंदर.
आदरणीय शरदिंदु सर, आपको बहुत-२ बधाई रचना पर
आदरणीय शरदिंदु मुखर्जी जी,
प्रेम-परिपाक के भावों से भरी ह्रदय को छूती अत्यंत मार्मिक रचना, हार्दिक साधुवाद एवं सद्भावनाएँ !
माननीय प्रणाम
क्या अतृप्ति है जो दीप जीवन में नहीं जला वह मृत्यु पर ही जल जाय i ऐसी साध को प्रणाम i
अंतिम प्रहर में पल्लव-पुट पर आँसू बरसे
समाधि पर मेरे तुम धीरे से आना
जो दीप नहीं जला सकी हो जीवन में,
प्रिये, एक बार
बस एक बार,
समाधि पर मेरी यूँ ही जला देना.
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