हामिद अब बड़ा हो गया है. अच्छा कमाता है. ग़ल्फ़ में है न आजकल !
इस बार की ईद में हामिद वहीं से ’फूड-प्रोसेसर’ ले आया है, कुछ और बुढिया गयी अपनी दादी अमीना के लिए !
ममता में अघायी पगली की दोनों आँखें रह-रह कर गंगा-जमुना हुई जा रही हैं. बार-बार आशीषों से नवाज़ रही है बुढिया. अमीना को आजभी वो ईद खूब याद है जब हामिद उसके लिए ईदग़ाह के मेले से चिमटा मोल ले आया था. हामिद का वो चिमटा आज भी उसकी ’जान’ है.
".. कितना खयाल रखता है हामिद ! .. अब उसे रसोई के ’बखत’ जियादा जूझना नहीं पड़ेगा.. जब हामिद वापस चला जायेगा, अपनी बहुरिया के साथ, अपने बेटे के साथ.. "
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(मौलिक और अप्रकाशित)
Comment
अमीना के लिए ईद पर लाया हामिद का वो चिमटा आज भी उसकी ’जान’ है -- और वास्तव में ये पंक्तिया ही इस सुन्दर कहानी
जान भी है, जिसमें गहरे स्नेह भाव साझा हो रहे है | ये सुन्दर लघु कथा ईद के तोंफे की तरह कबूल है आदरणीय श्री सौरभ भाई जी
आदरणीय सौरभ जी
किस-किस दौर से गुजरा होगा नन्हा हामिद...
कैसे टूटे होंगे उसके ख्वाब जब नहीं लौटे होंगे अब्बा रूपयों भरी थैलियों के साथ..ना ही अम्मी अल्लाह मियाँ के घर से सौगातें ले आई होंगी कभी.... क्या वक्त की कठोरता नें संवेदनहीन नहीं कर दिया होगा उसे हर गुज़रते पल के साथ..
क्या वही त्याग भावनाएं और प्यार फूड-प्रोसेसर लेते हुए भी रहा होगा उसके मन में...
क्या यही चाहिए इस अवस्था में दादी अमीना को...एक संवेदना शून्य फ़ूड प्रोसेसर , तिस पर बहुरिया भी अब हामिद के साथ चली जायेगी
आपकी प्रस्तुत लघुकथा ऐसे ही बहुत से प्रश्न मन में उठाती है..फिर उनके ज़वाब भी खुद ब खुद देती जाती है.... जैसे मुंशी प्रेमचंद की ईदगाह के हामिद और आपकी इस लघुकथा में अब बड़े हो चुके हामिद नें पाठकों के मन में बीच के काल खंड को भी कल्पनाओं के पटल में सजीव कर दिया और चलचित्र सा तैर गया...
सोच को तंतुओं को दो दृश्यों की सापेक्षता में स्पंदित करती इस सफल सशक्त लघुकथा के लिए हृदयतल से बहुत बहुत बधाई
सादर.
आदरणीय सौरभ भाईजी,
बूढ़ी दादी के लिए न दिल में जगह है न विदेश के उस घर में। आजकल तो शिक्षा भी यही मिलती है चालाक बनो !!! अंदर कुछ और रहे पर बाहर से कुछ और दिखो। यही अंतर है उस बालक हामिद में और शादी शुदा एवं बच्चों के पिता इस हामिद में। भोली भाली दादी को हामिद के दोनों रूप से प्यार है। पर सच यह भी है कि चिमटे वाला हामिद दादी के दिल में बस गया है, हमेशा साथ रहता है, और उसकी याद आज भी जीने का सहारा है।
आ. सौरभ भाई, आज उस भोले भाले सरल हृदय कालजयी रचनाओं के रचनाकार, कलम के सिपाही का जन्म दिन है। प्रेमचंदजी करोड़ों भारतीय पाठकों के दिल में आज भी उसी तरह विद्यमान हैं जिस तरह दादी के दिल में चिमटेवाला पोता।
इस लघु कथा पर मेरी हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
क्या चित्र खींचा है आदरणीय सौरभ सर आँखें नम हो गईं , आज कल ऐसी स्थिति घर घर मे आम है। टूटते समाज और सिमटते परिवार में बुजुर्गों को ईश्वर भरोसे छोड़ दिया जाता है। (बाकी औपचारिकताएं निभाई जाती है महीने दो महीने मे फोन .......... साल दो साल मे घर की सैर .................)
बहुत बढ़िया कहानी ..आदरणीय भैया ._/\_
आदरणीय गोपालनारायनजी, आपकी बातों से पूर्ण सहमति है कि कथा के पात्र अमीना द्वारा यथास्थिति स्वीकार कर लिया जाना इस कथा का अहम विन्दु है. आपने जिस ढंग से इस सामाजिक महीनी को रेखांकित किया है वह आप जैसे पारखी पाठकों के बूते की बात है.
आपके अनुमोदन का मैं आभारी हूँ.
सादर
आदरणीय हरि भाईजी, आपके उदार अनुमोदन का सादर आभारी हूँ. सहयोग बना रहे..
सादर
आदरणीया कुन्तीजी, आपने मेरी प्रस्तुति पर समय दिया, मुझे भी एक रचनाकार के तौर पर अपार संतोष हुआ है. आपके मुखर हेतु मैं आभारी हूँ.
सादर धन्यवाद
रवि भाई, लघुकथाओं पर आपकी पकड़ से वाकिफ़ हूँ. आपकी कथाओं के विन्यास पर एक पाठक के तौर पर जहाँ चकित होता रहा हूँ, वहीं साहित्य के विद्यार्थी के तौर पर मैंने कई विन्दु ग्रहण भी किये हैं.
इतने विलम्ब से इस विधा पर हाथ आजमाने को लेकर मैं यह तो नहीं कहूँगा कि इस विधा के आवश्यक विन्दुओं को ’सीख-समझ’ लेने के बाद मैं रचनाकर्म कर रहा हूँ. लेकिन यह अवश्य है कि यह मेरी पहली लघुकथा होने से कथ्य-संप्रेषण के प्रति सचेत अवश्य था. आपके उदार और मुखर अनुमोदन ने मुझे उत्साहित किया है, इसमे कोई शक नहीं.
अनुज, मुंशीजी मेरी इस प्रस्तुति पर क्या सोचते यह तो व्याकरण के ’हेतु-हेतु मदभूत’, यानि, ऐसा हुआ तो ये होता, का विषय है. लेकिन मुंशीजी के गंभीर पाठकों का मिलता अनुमोदन आह्लादित कर रहा है.
हार्दिक धन्यवाद
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