छंद- गीतिका
लक्षण – इसके प्रत्येक चरण में (14 ,12 )पर यति देकर 26 मात्रायें होती हैं I इसकी 3सरी, 10वीं, 17वीं और 24वीं मात्रा सदैव लघु होती है I चरणांत में लघु –दीर्घ होना आवश्यक है I
मिट चुकी अनुकूलता सब अब सहज प्रतिकूल हूँ I
मर चुका जिसका ह्रदय वह एक बासी फूल हूँ II
किन्तु तुम संजीवनी हो ! प्राणदा हो ! प्यार हो !
हो अलस संभार जिसमे मस्त-मदिर बहार हो II
मै सहज आश्वस्त सा था मुग्ध था कल्याण में I
तुम अचानक आ बसे क्यों सुप्त मेरे प्राण में II
जल उठी बिजली हृदय में स्वप्न सच लगने लगा I
देह का बंधन न तोडूँ भाव यह जगने लगा II
आज मै निज में नहीं हूँ फूल बासी ही सही I
यदि बहारें संगिनी है तो उदासी भी नहीं II
सत्य है हर बावला मन सत्य से ही भागता I
समय पर जगता नहीं है बाद में फिर जागता II
इस तरह वह फूल जिसका रूप-यौवन ढल चुका I
धूप में, तम में, उपल में तन–बदन भी जल चुका II
है न सौरभ, पत्र जिसके भी नहीं हरिताभ हैं I
है नहीं मकरंद जिसमे रस नही न रसाभ है II
सोचता है सुरभिमय हूँ सजल मेरे पात हैं I
म्लान थोडा ही हुआ हूँ मृदुल अब भी गात है II
क्या हुआ निर्माल्य हूँ यदि देवता पर चढ़ चुका I
और भव की राह पर भी वेग से मैं बढ़ चुका II
पर उन्हें कहता न कोई जो शिलाओं में कढ़े I
भव्य मंदिर स्वर्ण अथवा रौप्य से जिनके मढ़े II
वे अनादि, अनीह, अव्यय वन्द्य है निष्काम हैं I
व्यक्त है जो सहज वे राम हैं ! अभिराम हैं II
हम जिन्हें निर्गुण-सगुण के भेद द्वय से जानते I
पूज्य या आदर्श अथवा ईष्ट जिनको मानते II
यदि उन्हें भी नव-प्रफुल्लित सुमन की नित चाह है I
हम सरीखे पामरो की कौन सी फिर राह है II
भिन्नवर्णा पुष्प-रज यदि देवों का अभीष्ट है I
देव–विग्रह अन्य का पद-रज हमें भी ईष्ट है II
घात मन में भावना का पुष्प यूँ करता रहा I
लुब्ध मन में लालसा का रंग वह भरता रहा II
काम-पीड़ित पुहुप-चिंतन कलुष का सन्देश है I
पाप है कुविचार है यह व्यर्थ का आवेश है II
वासना-घटकर्ण निर्दय सत्य ही सोता नहीं I
दैव ! पापी कामना का अंत है होता नहीं II
अस्तु बासी फूल का यूँ सोचना इक भूल है I
हर तरह निर्माल्य तो बस मात्र बासी फूल है II
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय सौरभ जी
बिलकुल सही श्रीमन् i अनुपालन करूंगा i सादर i
महनीया राजेश कुमारी जी
आपका स्नेह सदीव मिलता रहे i आपने और प्राची जी ने जो सुझाव दिए उससे कृतकृत्य हूँ i तदनुसार सुधार कर लूँगा i पर आपने जो इतना समय गदया उसे अपने पर मैं आपका स्नेह ही मानता हूँ i स्सदर i
आदरणीया प्राची जी
आपने रचना को जो समय दिया उसके लिया आभारी हूँ और जो सुझाव दिए उनसे अपनी कमी मालूम हुयी i निस्संदेह आपके सुझाव कीमती है i मैं तदनुसार संशोधन तो कर लूँगा, पर आपका अनुग्रह ऐसा ही बना रहे i सादर i
श्याम नारायन वर्मा जी
आपका शत -शत आभार i
छन्दों के नियमानुसार गीतिका छन्द चार पदों का मात्रिक छन्द है.
इस हिसाब से एक और द्विपदी की आवश्यकता बन रही है. है न ?
आगे, इस रचना पर पुनः आता हूँ.
सादर
वाह्ह्ह्ह वाह्ह्ह्ह अतिसुन्दर फूल का बिम्ब लेकर अति भावपूर्ण गीतिका छंद जितनी तारीफ की जाए कम होगी
हाँ प्राची जी के सुझाव काबिले गौर हैं ...उनको दुरुस्त आप अवश्य कर ही लेंगे
समय पर जगता नहीं है बाद में फिर जागता ---यहाँ समय के स्थान पर वक्त कर लेंगे तो मात्रा ठीक हो जायेंगी समय में १२ हो रही हैं
यदि उन्हें भी नव-प्रफुल्लित सुमन की नित चाह है ---यहाँ भी सुमन के स्थान पर पुष्प लेंगे तो बात बन जायेगी सुमन में भी १२ मात्राएँ हैं जबकि हमे २१ चाहिए |
वे अनादि, अनीह, अव्यय वन्द्य है निष्काम हैं I ---अनीह में १२१ हो रही हैं
व्यक्त है जो सहज वे राम हैं ! अभिराम हैं II....................एक बार मात्रा जांच लें
भिन्नवर्णा पुष्प-रज यदि देवों का अभीष्ट है I.... देवों का अभीष्ट है----इसमें मात्राएँ गड़बड़ हैं
देव–विग्रह अन्य का पद-रज हमें भी ईष्ट है II
आदरणीय डॉ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी
बहुत खूबसूरत गीतिका छंद में आपने देवार्पित फूल के माध्यम से जीवन चिंतन को शब्द दिए हैं... बहुत सुन्दर
कहीं कहीं शिल्प पर अपनी बात अवश्य ही कहना चाहती हूँ...
मिट चुकी अनुकूलता सब अब सहज प्रतिकूल हूँ I...............सहज प्रतिकूल में कुछ विरोधाभास सा लगा
मर चुका जिसका ह्रदय वह एक बासी फूल हूँ II................ह्रदय....को हृदय कर लीजिये
सत्य है हर बावला मन सत्य से ही भागता I
समय पर जगता नहीं है बाद में फिर जागता II.........यहाँ समय शब्द गेयता को प्रभावित कर रहा है
है न सौरभ, पत्र जिसके भी नहीं हरिताभ हैं I...........है न सौरभ, पत्र में जिसके नहीं हरिताभ है...........ऐसा किया जाए तो?
है नहीं मकरंद जिसमे रस नही न रसाभ है II
वे अनादि, अनीह, अव्यय वन्द्य है निष्काम हैं I
व्यक्त है जो सहज वे राम हैं ! अभिराम हैं II....................एक बार मात्रा जांच लें
यदि उन्हें भी नव-प्रफुल्लित सुमन की नित चाह है I.............सुमन शब्द भी १२ गेयता के कारण प्रवाह बाधित कर रहा है
हम सरीखे पामरो की कौन सी फिर राह है II
भिन्नवर्णा पुष्प-रज यदि देवों का अभीष्ट है I................... रेखांकित अंश का शब्द संयोजन पुनः देखें
देव–विग्रह अन्य का पद-रज हमें भी ईष्ट है II
इस खूबसूरत छंद रचना के लिए हृदय तल से बहुत बहुत बधाई
कुछ क्लिष्ट मगर सुन्दर रचना है। बहुत बहुत बधाई ।सादर ... |
सोमेंश जी
आपका शत शत आभारी हूँ i
लडीवाला जी
आपके प्रोत्साहन से धन्य हुआ i
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