तूने व्यर्थ नयन छलकाये हैं…
राही प्रेम पगडंडी पर
क्योँ तूने कदम बढाये हैं
हर कदम पर देते धोखे
छलिया हुस्न के साये हैं
तेरे निश्छल भाव को समझें
किसके पास ये फुर्सत है
पल भर में ये अपने हैं
अगले ही पल पराये हैं
व्यर्थ है बादल भटकन तेरी
प्रेम विहीन ये मरुस्थल है
तुझे पुकारें तुझसे लिपटें
कहाँ वो व्याकुल बाहें हैं
हर और लगा बाजार यहाँ
हर और मुस्कानों के मेले हैं
छद्म वेश में करती घायल
बे-बाण यहाँ निगाहें हैं
तेरे गिरते आंसू को न
कोई हथेली न रोकेगी
पत्थर दिल के आंचल पर
तूने व्यर्थ नयन छलकाये हैं
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय somesh kumar जी रचना पर अपनी उपस्थिति से रचना का मान बढ़ाने का हार्दिक आभार। आदरणीय आपका कथन सही है किन्तु प्रेम भावों के कई रूप होते है उनमें से विरक्ति भी एक रूप है जिसे मैंने रचना में दर्शाने का प्रयास किया है। रचना पर आपने अपने अमूल्य समय दिया , इसके लिए हार्दिक आभार।
आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी रचना पर आपकी स्नेहिल उपस्थिति का हार्दिक आभार।
आदरणीय Dr. Vijai Shanker जी रचना पर आपकी स्नेहिल उपस्थिति का हार्दिक आभार।
आदरणीय Hari Prakash Dubey जी रचना पर अपनी उपस्थिति से रचना का मान बढ़ाने का हार्दिक आभार।
आदरणीय Rahul Dangi जी रचना पर आपकी स्नेहिल उपस्थिति का हार्दिक आभार।
आ . कविता अच्छी है पर कविता में प्रेम-पथ पर ना जाने की सलाह ?सही कहा आप ने प्रेम काफ़ी हद तक बाजारवाद से प्रभावित है पर ऐसा नहीं है कि प्रेम पूर्णत समाप्त है |रचना पर बधाई |
सुन्दर प्रस्तुति ... बधाई
आदरणीय सुशील सरना सर ,....
तेरे गिरते आंसू को न
कोई हथेली न रोकेगी
पत्थर दिल के आंचल पर
तूने व्यर्थ नयन छलकाये हैं.....बहुत सुन्दर , भावपूर्ण रचना, हार्दिक बधाई आपको सर !
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