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दोष ऐसा आ गया अब शील में
फासले कदमों के बदले मील में
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भर लिया तम से मनों को इस कदर
रोशनी भी कम लगे कंदील में
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देह होकर देह सा रहते नहीं
टाँगते खुद को वसन से कील में
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युग नया है रीत भी इसकी नई
आचरण से ध्यान जादा डील में / डील-दैहिक विस्तार
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अब बचे पावन न रिश्ते दोस्तो
तत तक बदले है खुद को चील में
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भय सताता क्या तुम्हें भी दाग का
श्वेत चादर जो डुबोते नील में
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देखता हूँ दुर्जनों को भय नहीं
राज गहरा शासकों की ढील में
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चह तो थी वो सिखाए शील कुछ
संत ही पर रम गए अश्लील में
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छटपटाता जब वनों पर चोट हो
हमसे जादा सभ्यता है भील में
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मौलिक और अप्रकाशित
Comment
आ0 भाई विजय शंकर जी उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार ।
आदरणीय लक्ष्मण जी ..सार्थक सन्देश देते शानदार हिंदी ग़ज़ल ..बहुत बहुत बधाई सादर
देखता हूँ दुर्जनों को भय नहीं
राज गहरा शासकों की ढील में
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चह तो थी वो सिखाए शील कुछ
संत ही पर रम गए अश्लील में
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वाह बहुत खूब आ. मुशाफिर जी |आपको बधाई |
"देखता हूँ दुर्जनों को भय नहीं
राज गहरा शासकों की ढील में
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चह तो थी वो सिखाए शील कुछ
संत ही पर रम गए अश्लील में" बर्तमान परिप्रेक्ष्य में सटीक उतरते/चोट करते शे'र I भाई मुशाफिर अति सुंदर इ बहुत बहुत बधाई I
छटपटाता जब वनों पर चोट हो
हमसे जादा सभ्यता है भील में
कितनी खुरदरी मगर सच्ची बात कही है ,पूरी गज़ल एक समाजिक चिंतन को इंगित करती है |
आदरणीय लक्ष्मण धामी सर बेहतरीन ग़ज़ल हुई है दिल से दाद कुबूल कीजिये... टंकण त्रुटियाँ ध्यान भटकाती है... हरेक अशआर उम्दा हुआ है ... ये कमाल के अशआर है-
दोष ऐसा आ गया अब शील में
फासले कदमों के बदले मील में
भर लिया तम से मनों को इस कदर
रोशनी भी कम लगे कंदील में
देखता हूँ दुर्जनों को भय नहीं
राज गहरा शासकों की ढील में
छटपटाता जब वनों पर चोट हो
हमसे जादा सभ्यता है भील में
इस सुन्दर ग़ज़ल की प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई निवेदित है...
भर लिया तम से मनों को इस कदर
रोशनी भी कम लगे कंदील में
वाह आदरणीय धामी जी वाह .... बहुत ही सुंदर ग़ज़ल .... गहन अनुभूतियों से लबरेज़ इस ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई।
आ0 लक्ष्मण भाई
वाह क्या सुन्दर गजल है i 'तत तक बदले है खुद को चील में' इसमें तत का मतलब समझ में नहीं आया i कोई टंकण त्रुटि लगती है i फिलहाल रचना पर बधाई i
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